इस दुनिया की 80% वेल्थ सिर्फ 20% लोगों के पास क्यों?
कभी सोचा है कि आखिर क्यों दुनिया की 80% दौलत सिर्फ 20% लोगों के पास है?
क्या ये सिर्फ स्ट्रेटजी का खेल है या फिर कुछ और गहराई में बात छिपी है?
ज़्यादातर लोग सोचते हैं —
"अगर मुझे अमीर बनने की स्ट्रेटजी मिल जाए, तो मैं भी करोड़पति बन जाऊँ।"
लेकिन सच्चाई यह है कि सिर्फ स्ट्रेटजी नहीं, माइंडसेट और सबकॉन्शियस लेवल पर सोचने का तरीका ही असली फर्क पैदा करता है।
🧘♂️ सबकॉन्शियस माइंड की ताकत
हमारा सबकॉन्शियस माइंड (Subconscious Mind) बहुत पावरफुल होता है।
अगर आप अपने माइंड में यह सोच डालें कि — “मैं अमीर बन सकता हूँ, मैं कर सकता हूँ”,
तो धीरे-धीरे आपका दिमाग वैसे रिसोर्स और मौके क्रिएट करने लगता है जो आपको सफलता की ओर ले जाते हैं।
विराट कोहली को ही देखिए — एक समय ऐसा था जब वे पूरी फॉर्म में नहीं थे,
लेकिन उनके अंदर का माइंडसेट और फ्रीक्वेंसी उन्हें फिर से टॉप पर ले आई।
⚡ लो फ्रीक्वेंसी बनाम हाई फ्रीक्वेंसी
जब इंसान लो फ्रीक्वेंसी पर ऑपरेट करता है —
मतलब गुस्सा, जलन, comparison और नेगेटिविटी में जीता है —
तो उसके लिए सफलता के दरवाज़े बंद हो जाते हैं।
लेकिन जब आप अपनी वाइब्रेशन को ऊँचा करते हैं,
यानी पॉज़िटिव सोचते हैं, दूसरों के लिए अच्छा चाहते हैं, और अपने विज़न पर फोकस करते हैं —
तो वही फ्रीक्वेंसी आपको आपके गोल की ओर खींचती है।
🧩 मार्क जुकरबर्ग का उदाहरण
सोचिए अगर मार्क जुकरबर्ग ने “Facebook” का आइडिया सिर्फ सोचा होता और एक्शन नहीं लिया होता,
तो क्या आज वह दुनिया के सबसे अमीर लोगों में होते?
विचार तभी मायने रखता है जब उसे एक्शन में बदला जाए।
🎯 Manifestation कैसे काम करता है?
हर इंसान का माइंड अलग तरीके से काम करता है:
- अगर आप Visual person हैं — तो “Law of Attraction” आपके लिए काम करेगा।
- अगर आप Kinesthetic (फीलिंग वाले) हैं — तो “Manifestation” ज्यादा असर करेगा।
- और अगर आप Audio person हैं — तो सुनकर सीखना, Affirmations सुनना आपके लिए सही रहेगा।
क्यों दुनिया की 80% दौलत सिर्फ 20% लोगों के पास है? (Money Mindset Explained)
दुनिया की 80% दौलत सिर्फ 20% लोगों के पास है — यह सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि एक सच्चाई है जो हर किसी को सोचने पर मजबूर करती है।
कुछ रिपोर्ट कहते हैं 90% दौलत 10% लोगों के पास है, और कुछ कहते हैं 99% दौलत 1% लोगों के पास है।
पर बात चाहे जो भी हो, एक तथ्य साफ है — अमीर और बाकी लोगों के बीच फर्क बढ़ता ही जा रहा है।
💬 सवाल यह है – आखिर ऐसा क्यों?
अगर हम केवल “स्ट्रेटजी” या “तरीके” की बात करें, तो यह पूरी सच्चाई नहीं है।
कई बार बेहद टैलेंटेड लोग भी संघर्ष करते रह जाते हैं, जबकि कुछ साधारण लोग बहुत बड़ी सफलता हासिल कर लेते हैं।
तो फर्क कहाँ है?
फर्क है माइंडसेट में, सोच के पैटर्न में, और सबकॉन्शियस माइंड (अवचेतन मन) की प्रोग्रामिंग में।
🧩 एक काल्पनिक प्रयोग से समझें
कल्पना कीजिए —
अगर एक दिन सरकार यह फैसला करे कि देश की सारी दौलत इकट्ठा कर ली जाए,
और उसे 140 करोड़ भारतीयों में बराबर बाँट दिया जाए।
हर इंसान के खाते में करोड़ों रुपये आ जाएँ,
हर घर अमीर बन जाए —
अब सोचिए, क्या होगा?
10 साल बाद…
20 साल बाद…
50 साल बाद…
क्या अमीरी और गरीबी खत्म हो जाएगी?
या फिर वही पुराना 80/20 का अनुपात वापस लौट आएगा?
ज़्यादातर विशेषज्ञों का कहना है — हाँ, यह फिर से वैसा ही हो जाएगा।
क्योंकि पैसा सिर्फ बाहरी संसाधन नहीं है,
बल्कि यह अंदर के माइंडसेट से संचालित होता है।
💭 कुछ तो है जो हमें अभी तक समझ नहीं आया
अगर पैसे को सिर्फ “कमाने की स्ट्रेटजी” से हासिल किया जा सकता,
तो आज हर बिजनेस बुक पढ़ने वाला करोड़पति होता।
लेकिन सच्चाई यह है कि
"पैसा वहीं टिकता है जहाँ माइंड उसे संभालना जानता है।"
यानी — अमीरी का खेल सिर्फ प्लानिंग का नहीं, सोच का है।
💸 पैसा बनाने की तीन स्टेजेस
जब बात मनी साइंस की आती है, तो तीन मुख्य स्टेज होती हैं:
- Making Money (पैसा बनाना)
- Investing Money (पैसा निवेश करना)
- Saving Money (पैसा बचाना)
और सच्चाई यह है कि 90% लोग पहले स्टेज यानी Making Money पर ही अटक जाते हैं।
कई लोगों को लगता है कि अगर उन्हें “सही स्ट्रेटजी” मिल जाए,
तो वे अमीर बन जाएंगे।
लेकिन वे भूल जाते हैं कि स्ट्रेटजी से पहले स्टेट ऑफ माइंड (State of Mind) जरूरी है।
⚡ असली गेम: माइंडसेट का
जो लोग सच में अमीर बनते हैं —
वे अपने विचारों, फ्रीक्वेंसी, और सबकॉन्शियस माइंड को इस तरह प्रोग्राम करते हैं
कि पैसा और अवसर उनके जीवन में अपने आप खिंचे चले आते हैं।
इसलिए, फर्क स्ट्रेटजी या टैलेंट का नहीं है,
फर्क है उस इनर आइडेंटिटी का जो इंसान खुद को अंदर से बनाता है।
जब तक हम अपने भीतर की सोच और पैटर्न नहीं बदलेंगे,
कोई भी बराबरी की पॉलिसी या स्ट्रेटजी हमें स्थायी अमीरी नहीं दे सकती।
सफलता और संपत्ति की शुरुआत बाहर से नहीं,
भीतर से होती है।
🏠 एक ही घर, एक ही पिता — फिर फर्क कहाँ?
सोचिए —
धीरूभाई अंबानी जी ने अपने दोनों बेटों को एक जैसी परवरिश दी।
एक ही घर, एक जैसा माहौल, एक जैसी शिक्षा।
जब बंटवारा हुआ तो मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी — दोनों को बराबर संपत्ति मिली।
लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि आज
एक भाई दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में शामिल है,
जबकि दूसरा संघर्ष कर रहा है?
क्या ऐसा हो सकता है कि धीरूभाई ने कोई गुप्त “स्ट्रेटजी” सिर्फ मुकेश को बताई हो?
बिलकुल नहीं।
इस उदाहरण से एक गहरी बात समझ आती है —
सफलता सिर्फ स्ट्रेटजी का खेल नहीं, माइंडसेट का खेल है।
📚 अगर स्ट्रेटजी ही सबकुछ होती…
तो “Rich Dad Poor Dad”, “Think and Grow Rich”,
या “Business School” जैसी किताबें पढ़ने वाला हर व्यक्ति आज करोड़पति होता।
क्योंकि ये किताबें लगभग हर किसी ने पढ़ी हैं।
फिर भी, कितने लोग हैं जो सच में अमीर बन पाए?
बहुत कम।
इसका मतलब साफ है —
“सिर्फ जानकारी (Information) से नहीं,
सोच (Transformation) से अमीरी आती है।”
🧠 मनी माइंडसेट का असली फॉर्मूला
पैसे की जर्नी में स्ट्रेटजी सिर्फ 20% रोल निभाती है।
बाकी 80% आपकी Money Psychology और Subconscious Beliefs तय करते हैं।
आपके भीतर जो विश्वास, मूल्य (Values), और आत्म-छवि (Identity) हैं —
वे तय करते हैं कि आप पैसे के बारे में क्या सोचते हैं,
कैसे निर्णय लेते हैं, और अवसरों को कैसे पहचानते हैं।
यही वजह है कि दो लोग एक जैसी जानकारी रखते हुए भी
एक अमीर बनता है और दूसरा वहीं का वहीं रह जाता है।
💬 असली फर्क कहाँ है?
अमीर लोग पैसे के बारे में डर से नहीं,
विश्वास और अवसर की भावना से सोचते हैं।
वे अपने सबकॉन्शियस माइंड को इस तरह प्रोग्राम कर लेते हैं कि
हर परिस्थिति में वे ग्रोथ के मौके ढूंढ लेते हैं।
वहीं, ज्यादातर लोग कमी, डर और तुलना में उलझ जाते हैं।
यानी असली गेम बाहर की दुनिया में नहीं, भीतर की सोच में है।
💡 क्यों सिर्फ 20% लोगों के पास है दुनिया की 80% दौलत?
अब सवाल उठता है —
ऐसा क्या है जो उन 20% लोगों को पता है, जो 80% लोगों को नहीं पता?
जब हम इन दोनों ग्रुप्स का गहराई से अध्ययन करते हैं, तो एक बात साफ नज़र आती है —
दोनों के जीने का मॉडल (Model of Life) ही अलग है।
⚖️ गलत मॉडल: “Have → Do → Be”
ज्यादातर लोग अपनी ज़िंदगी इस फॉर्मूले से जीते हैं:
“अगर मेरे पास यह होता (Have), तो मैं यह करता (Do),
और तब मैं यह बनता (Be)।”
उदाहरण के लिए:
- “अगर मेरे पास पैसे होते, तो मैं बिजनेस शुरू करता।”
- “अगर मेरे पास अच्छा कैमरा होता, तो मैं YouTube चैनल बनाता।”
- “अगर मेरे पास स्किल्स होतीं, तो मैं सफल बनता।”
यानी, जब तक परिस्थितियाँ सही नहीं होंगी, वे कोई कदम नहीं उठाएँगे।
और यही सोच उन्हें वहीं रोके रखती है — क्योंकि यूनिवर्स बाहर से नहीं, अंदर से काम करता है।
🌌 यूनिवर्स का सीक्रेट: “Inside → Out”
यह दुनिया हमेशा अंदर से बाहर की ओर (Inside-Out) चलती है।
जो आपके भीतर है, वही आपकी बाहरी हकीकत बनता है।
आपका सबकॉन्शियस माइंड उसी चीज़ को हकीकत में बदल देता है
जिसे आप भीतर से “सच” मानते हैं।
यानी —
“आपकी बाहरी जिंदगी, आपकी अंदरूनी सोच का प्रतिबिंब (reflection) है।”
✅ सही मॉडल: “Be → Do → Have”
सफल लोग एक बिल्कुल उलटा मॉडल अपनाते हैं:
Be (बनें) → Do (करें) → Have (पाएँ)
पहले वो अपने भीतर वो पहचान (Identity) बनाते हैं जो उन्हें बनना है।
फिर उसी पहचान से वे कदम उठाते हैं।
और अंत में, यूनिवर्स उन्हें वही देता है जो वे भीतर से मान चुके होते हैं।
उदाहरण के लिए:
“मैं अमीर हूं, इसलिए मैं अमीरों की तरह सोचता, काम करता और फैसले लेता हूं।”
“मैं आत्मविश्वासी हूं, इसलिए मैं बड़े अवसरों को अपनाता हूं।”
🧠 चाय का कप वाला सीक्रेट
मान लीजिए किसी ने चाय का कप गिरा दिया।
अब कप से क्या गिरा? — चाय, क्योंकि अंदर वही थी।
अगर अंदर कॉफी होती, तो कॉफी गिरती।
सीधा सा मतलब है —
“जो कप के अंदर है, वही बाहर आएगा।”
इसी तरह, आपके अंदर जो है, वही आपकी जिंदगी में बाहर दिखता है।
अगर अंदर डर, कमी और सीमाएँ भरी हैं,
तो बाहर भी वैसी ही हकीकत बनेगी।
अगर अंदर अमीरी, आत्मविश्वास और विस्तार का भाव है,
तो बाहर सफलता और अवसर अपने आप पैदा होंगे।
💰 असली गरीबी कहाँ है?
आप गरीब अपने बैंक बैलेंस से नहीं,
बल्कि अपने अंदरूनी आइडेंटिटी (Inner Identity) से हैं।
अगर आपके भीतर “मैं गरीब हूं” वाला भाव है,
तो आपका सबकॉन्शियस माइंड उसी पहचान के हिसाब से आपकी रियलिटी बनाता है।
इसलिए,
“आपका बैंक अकाउंट आपकी अंदरूनी सोच का आईना है।”
🔄 बदलाव कहाँ से शुरू होता है?
याद रखिए —
“Reality doesn’t change from outside, it changes from inside.”
अगर आप अपनी बाहरी जिंदगी बदलना चाहते हैं —
तो सबसे पहले अपनी Inner Identity, अपने Beliefs और Thought Patterns को बदलना पड़ेगा।
क्योंकि जब भीतर बदलता है,
तभी बाहर का यूनिवर्स आपके पक्ष में काम करना शुरू करता है।
🌟 क्या सिर्फ माइंडसेट बदलकर हर कोई अमीर बन सकता है?
बहुत से लोग सोचते हैं — “क्या सिर्फ सोच बदलने से हर कोई यह चेंज ला सकता है?”
जवाब है — हां, 100% संभव है।
सिर्फ सही माइंडसेट अपनाने से, कोई भी व्यक्ति अपनी ज़िंदगी में बड़ा बदलाव ला सकता है।
🚀 अल्ट्रा सक्सेसफुल लोगों का उदाहरण
यदि हम एलन मस्क, बिल गेट्स, या दुनिया के किसी अल्ट्रा-रिच व्यक्ति को देखें,
तो वहां कुछ चीजें साफ़ दिखाई देती हैं:
- उन्हें सही एनवायरनमेंट मिला।
- सही नेटवर्क और अवसरों तक पहुंच थी।
- ये सब मिलकर उन्हें जल्दी और बड़े पैमाने पर सफल बनाते हैं।
लेकिन यह जरूरी नहीं कि हर कोई वही परिणाम पाए।
अगर वही व्यक्ति भारत के किसी छोटे गाँव में पैदा होता, तो परिस्थितियाँ अलग होतीं।
यानी बाहरी संसाधनों (Resources) का रोल है, लेकिन यह सबसे अहम नहीं है।
🌌 असली पॉवर: इनर आइडेंटिटी
जब आप अपनी Inner Identity को बदलना शुरू करते हैं,
तो:
- रिसोर्सेज आपकी जिंदगी में खुद-ब-खुद क्रिएट होने लगते हैं।
- अवसर (Opportunities) आकर्षित होने लगते हैं।
- सही लोग और सही परिणाम आपके आसपास खुद-ब-खुद आते हैं।
Everything aligns according to you।
🧬 साइंटिफिकली समझें
जब आप अपनी आइडेंटिटी में कोई भी थॉट उत्पन्न करते हैं:
- अगर आप सोचते हैं, “मैं नहीं कर पाऊंगा,”
- या “यह मेरे लिए संभव नहीं है,”
तो यही थॉट आपके सबकॉन्शियस माइंड में बैठ जाता है।
यह थॉट आपकी हर लाइफ के डिसीज़न को प्रभावित करता है।
याद रखें — यह किसी बच्चे की गलती नहीं, या उस व्यक्ति की गलती नहीं।
गलती है समाज की, जिस माहौल में उसकी परवरिश हुई, और
जहाँ उसके बिलीफ्स और मान्यताएँ बनीं।
⚠️ समाज और सबकॉन्शियस का असर
-
बचपन से तुलना (Comparison) और ताने (Criticism) देने से
सबकॉन्शियस में यह संदेश बैठ जाता है कि “तू कुछ नहीं कर पाएगा।” -
माता-पिता और समाज की बार-बार कही गई बातें,
चाहे वह अच्छी इरादों से कही गई हों,
आपके सबकॉन्शियस में बिलीफ्स का रूप ले लेती हैं।
यह बिलीफ आपके हर निर्णय और रिसोर्सेस को यूज़ करने की क्षमता को प्रभावित करती है।
💡 रिसोर्सेज का रोल
-
याद रखें, रिसोर्सेज हर किसी के लिए उपलब्ध हो सकते हैं,
लेकिन उनका असली इस्तेमाल वही कर पाते हैं जिनकी आइडेंटिटी और माइंडसेट तैयार है। -
इसलिए, सबसे पहले अंदर से बदलाव लाना जरूरी है,
तभी बाहरी अवसर और संसाधन सही तरीके से काम करेंगे।
💡 रिसोर्सेज और अवसर: कितना अहम है?
जब हम रिसोर्सेज की बात करते हैं, तो यह समझना जरूरी है कि:
“रिसोर्सेज हर किसी के पास उपलब्ध हो सकते हैं, लेकिन वे सबसे अहम फैक्टर नहीं हैं।”
एलन मस्क और बिल गेट्स के पास डे वन से सारे संसाधन और नेटवर्क नहीं थे।
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत सिर्फ उसी समय की — जब उन्होंने सही फ्रीक्वेंसी, सही थॉट और क्लियर आइडेंटिटी अपनाई।
- डॉट्स कनेक्ट होते गए।
- सही माइंडसेट के कारण रिसोर्सेज और नेटवर्क भी उनके पास उपलब्ध हो गए।
🎯 टैलेंट सिर्फ काफी नहीं
मैंने अपनी ज़िंदगी में कई टैलेंटेड लोगों को स्ट्रगल करते देखा है।
- स्कूल में कोई पढ़ाई में आगे था, कोई बोलने में, कोई म्यूजिक या डांस में।
- लेकिन कई प्रतिभाशाली लोग भी सफलता नहीं पा सके।
क्यों?
टैलेंट बिना हार्ड वर्क के काम नहीं करता।
सिर्फ आइडेंटिटी, बिलीफ या साइकोलॉजी बदलकर बैठे रहना पर्याप्त नहीं है।
Action लेना जरूरी है।
🧠 थॉट्स और फ्रीक्वेंसी
हर थॉट की अपनी फ्रीक्वेंसी होती है।
- जब आप डाउट या डर के साथ सोचते हैं, तो आप लोअर फ्रीक्वेंसी पर होते हैं।
- इस लोअर फ्रीक्वेंसी पर, आप वही चीजें अट्रैक्ट करेंगे जो उसी लेवल पर हैं।
उदाहरण:
- आपकी मानसिक स्थिति डाउट और कन्फ्यूजन में है।
- आप ऐसे लोग और परिस्थितियाँ आकर्षित करेंगे जो और डाउट या प्रॉब्लम क्रिएट करेंगे।
⚡ लोअर फ्रीक्वेंसी का असर
- छोटी-छोटी चीज़ों पर गुस्सा आना।
- ट्रेन छूट जाना, फोन या रिमोट टूटना।
- कार का चालान कटना, हेल्थ इश्यूज़।
ये अनवांटेड प्रॉब्लम्स उसी फ्रीक्वेंसी का रिजल्ट हैं।
- अगर आपकी सोच नेगेटिव और लोअर फ्रीक्वेंसी में है,
- तो यूनिवर्स आपको वही परिस्थितियाँ और लोग अट्रैक्ट कराएगा।
🔑 सबकॉन्शियस माइंड का सटीक नियम
- कभी सोचा है कि “मेरे साथ ही हमेशा ऐसा क्यों होता है?”
- “मेरी लाइफ पार्टनर मुझे धोखा क्यों देती है?”
- “मेरे बिजनेस में लॉस क्यों होता है?”
जवाब:
आप अपने सबकॉन्शियस माइंड से वही चीज़ अट्रैक्ट कर रहे हैं।
जो आपकी अंदरूनी फ्रीक्वेंसी है, वही आपकी बाहरी रियलिटी बनती है।
वो चीजें खुद-ब-खुद क्रिएट होती चली जाएंगी अगर आप सही थॉट प्रोसेस के साथ अपनी लाइफ जी रहे हैं। हर थॉट जो आप प्रोड्यूस करते हैं — अपने लिए या अपने करियर के लिए — उसकी अपनी एक फ्रीक्वेंसी होती है।
डॉक्टर मैक्सवेल वॉल्ट्स ने बताया कि हर इमोशन की अपनी फ्रीक्वेंसी होती है — चाहे वह गिल्ट हो, फियर हो या डाउट।
जब आप अपनी लाइफ डाउट और कन्फ्यूजन में जी रहे हैं, तो आप लोअर फ्रीक्वेंसीज़ में रहते हैं। और जब आप लोअर फ्रीक्वेंसीज़ में रहते हैं, तो आप उन चीज़ों को अट्रैक्ट करते हैं जो उसी फ्रीक्वेंसी पर ऑपरेट कर रही होती हैं।
लोअर फ्रीक्वेंसी पर ऑपरेट होने वाली चीज़ें क्या हैं?
-
आपको ऐसे लोग मिलेंगे जो आपके डाउट को और बढ़ाएंगे।
-
आपको गुस्सा आएगा, छोटी-छोटी बातों पर टेम्पर शॉर्ट होगा।
-
आपकी ट्रेन छूट सकती है, आपका फोन या रिमोट टूट सकता है, कार का चालान कट सकता है।
-
हेल्थ इश्यूज हो सकते हैं।
यानी अनवांटेड प्रॉब्लम्स आपके जीवन में घटित होने लगेंगे।
आपने कभी सुना है — “मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?” या “व्हाई गॉड ओनली मी?”
ये इसलिए होता है क्योंकि आप लोअर फ्रीक्वेंसीज़ को अट्रैक्ट कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए, आप ट्रेडिंग कर रहे हैं और जो आप खरीदते हैं उसमें लॉस होता है, जबकि कोई और उसी चीज़ में प्रॉफिट कमा लेता है। इसका कारण है कि आप लॉस अट्रैक्ट कर रहे हैं, क्योंकि आपकी फ्रीक्वेंसी उसी के अनुसार है।
लक भी इसी तरह काम करता है। जो व्यक्ति सही फ्रीक्वेंसी पर ऑपरेट कर रहा है, उसे चीजें सही समय पर मिलती हैं। इसलिए जब आपकी फ्रीक्वेंसी किसी से मैच होती है, तो आप कनेक्ट हो जाते हैं और आपकी योजना, आपके काम, और अपॉर्चुनिटीज उसी के अनुसार घटित होती हैं।
कई बार आप मेहनत कर रहे होते हैं — भाग रहे होते हैं, हार्डवर्क कर रहे होते हैं, सब कुछ कर रहे होते हैं — लेकिन चीजें नहीं बन रही होतीं, अपॉर्चुनिटीज नहीं मिल रही होतीं, लोग नहीं मिल रहे होते, रिजल्ट नहीं आ रहा होता।
इसका कारण यही है कि आप लोअर फ्रीक्वेंसीज़ पर ऑपरेट कर रहे हैं।
कई बार आपने सुना होगा कि कोई कहता है — “यार, मुझे गुस्सा आ रहा है, अभी मुझसे बात मत करो,” या “मैं अभी सैड फील कर रहा हूं, प्लीज मुझे अकेला छोड़ दो।”
फिर लोग कहते हैं — “गुस्से में बोल दिया होगा, प्लीज माइंड मत करना।”
तो हम ऐसे टर्म्स क्यों यूज करते हैं? क्योंकि गुस्से या नेगेटिव इमोशंस में कही गई बात सही नहीं हो सकती। जब आप डाउट, गिल्ट, फियर, या एंगर में होते हैं, तो आपका सबकॉन्शियस माइंड और आपका PFC (Prefrontal Cortex) शट डाउन हो जाता है। आपकी सोचने-समझने की क्षमता पूरी तरह ब्लॉक हो जाती है।
जब आप ट्रेडिंग, स्टॉक खरीदने, प्रॉपर्टी निवेश, जॉब इंटरव्यू या कोई भी महत्वपूर्ण डिसीजन ले रहे होते हैं, तो यह असर आपको सीधे दिखाई देता है। लोअर फ्रीक्वेंसीज़ में होने पर आपकी क्रिएटिविटी पूरी तरह ब्लॉक हो जाती है।
उदाहरण के लिए:
- विराट कोहली क्रिकेट खेलते हैं।
- रोहित शर्मा क्रिकेट खेलते हैं।
- शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन मूवीज़ बनाते हैं।
कई सालों से मेहनत कर रहे हैं, लेकिन कभी-कभी उनकी मेहनत पूरी तरह सफल नहीं होती। शाहरुख खान की मूवी फ्लॉप हो सकती है, विराट कोहली ज़ीरो पर आउट हो सकते हैं।
तो सवाल यह है — जब हम कहते हैं कि “प्लेयर फॉर्म में नहीं है” — तो फॉर्म क्या है?
फॉर्म अचानक नहीं आता। यह कंटीन्यूअसली बनता है। अगर आप लगातार प्रैक्टिस नहीं करेंगे, तो कई सालों तक प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है।
उदाहरण के तौर पर, विराट कोहली फॉर्म में नहीं थे। लेकिन उनका स्किल सेट वहां था। उन्होंने बैट पकड़ना या मारना नहीं भूला था, सब कुछ था। फिर भी वह अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे। कारण? लोअर फ्रीक्वेंसीज़ पर ऑपरेट करना।
जब आप लोअर फ्रीक्वेंसीज़ में होते हैं, तो आपके अंदर की काबिलियत का एक्सेस बंद हो जाता है। आपका परफॉर्मेंस पूरी तरह ब्लॉक हो जाता है।
जब आप ध्यान लगाते हैं, या सरेंडर मोड में जाते हैं, तो आपकी फ्रीक्वेंसी बदल जाती है। और फ्रीक्वेंसी बदलते ही — अगर बैट पर बॉल गलत लगे भी — फील्डर से छूटकर चौका ही जाएगा।
सिर्फ हार्ड वर्क करने से सफलता नहीं मिलती। आज जो लोग रोड पर लेबर का काम कर रहे हैं, सबसे अमीर वही नहीं होते। सफलता के लिए सही फ्रीक्वेंसी, सही माइंडसेट और हार्ड वर्क सभी जरूरी हैं।
तो माइंडसेट का यहाँ बहुत बड़ा रोल है — लगभग 80% तक। आपकी माइंडसेट, आपकी फ्रीक्वेंसी और आपके थॉट्स — ये सब आपके जीवन के तरीके को तय करते हैं।
आपने पहले लोअर फ्रीक्वेंसी और हाई फ्रीक्वेंसी की बात सुनी होगी और इन्हें सबकॉन्शियस माइंड से जोड़ा गया था। सवाल यह है कि इन दोनों का कनेक्शन क्या है और इंसान लोअर फ्रीक्वेंसी से हाई फ्रीक्वेंसी में कैसे जा सकता है?
सबकॉन्शियस माइंड का महत्व:
सबकॉन्शियस माइंड आपके जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, उसे नियंत्रित करता है। यह सबसे पावरफुल मेकेनिज्म है जो आपके गोल्स को अचीव कराने में मदद करता है। इसे समझकर आप अपनी पूरी जिंदगी बदल सकते हैं। यह वही “बिलियनेयर सीक्रेट्स” है जो हर सफल व्यक्ति में कॉमन पाए जाते हैं।
सबकॉन्शियस माइंड को समझें:
सरल भाषा में, सबकॉन्शियस माइंड एक गोल-अचीविंग मशीन है। यह आपकी आदतों, विश्वासों और थॉट पैटर्न्स के आधार पर काम करता है। जितना साफ़ और पॉजिटिव निर्देश आप देंगे, उतना ही यह आपके लिए काम करेगा।
उदाहरण: मान लीजिए आपका सबकॉन्शियस माइंड आपके घर का भरोसेमंद सहायक है। आप जो दिशा देंगे, वही वह ढूँढकर लाएगा — अच्छे या बुरे काम के लिए। इसलिए ध्यान रखें कि आप क्या बोल रहे हैं और क्या सोच रहे हैं।
नेगेटिव माइंडसेट के प्रभाव:
अगर आपका माइंडसेट नेगेटिव है — भय, शंका, गिल्ट या क्रोध से भरा हुआ — तो आपका सबकॉन्शियस भी उसी अनुसार परिणाम लाएगा। इसका मतलब यह नहीं कि कोई जादू हुआ है; बल्कि आपका फोकस और ऊर्जा सीधे आपके व्यवहार और निर्णयों में बदल जाती है, और जीवन में वही परिस्थितियाँ आती हैं।
कैसे फ्रीक्वेंसी बदलें:
- रिचुअल्स और मेडिटेशन करें।
- सरेंडर मोड में जाएँ और अपने माइंडस्टेट को शांति और स्पष्टता की स्थिति में लाएँ।
- अपनी फ्रीक्वेंसी बढ़ाएँ ताकि आपकी क्रिएटिविटी, प्रैक्टिस और परफॉर्मेंस खुलकर काम करें।
फॉर्म और लगातार सुधार:
फॉर्म अचानक नहीं आता; यह लगातार बनता है। अगर आप लगातार नेगेटिव भाव में रहेंगे, तो आपकी काबिलियत का एक्सेस बंद हो जाएगा। सही फ्रीक्वेंसी अपनाकर आप अपनी क्रिएटिविटी और परफॉर्मेंस बढ़ा सकते हैं।
निष्कर्ष:
सिर्फ हार्डवर्क ही पर्याप्त नहीं है। सही माइंडसेट, सही फ्रीक्वेंसी, और लगातार एक्शन — इन तीनों का संतुलन होना चाहिए। जब आप अपना सबकॉन्शियस माइंड सही दिशा में प्रोग्राम कर लेंगे, तब रिसोर्सेज, मौके और सपोर्ट अपने आप जुड़ने लगेंगे।
अच्छा, एक सवाल यहाँ जोड़ते हैं। हमारे ब्रेन के कई हिस्से होते हैं — राइट ब्रेन, लेफ्ट ब्रेन, और प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स (PFC)। कुछ ब्रेन पार्ट्स हमारे इमोशंस को नियंत्रित करते हैं, कुछ लॉजिकल थॉट्स के लिए जिम्मेदार होते हैं।
अब सवाल यह है कि सबकॉन्शियस माइंड हमारी सारी चीज़ें कंट्रोल करता है, तो यह ब्रेन में कहां स्थित है? क्या यह किसी एक पर्टिकुलर हिस्से में है, जैसे एमिगडला, PFC, या लेफ्ट/राइट ब्रेन?
सच्चाई यह है कि नहीं। सबकॉन्शियस माइंड किसी एक हिस्से में नहीं रहता। इसे किसी एक लोकेशन पर खोजने की कोशिश करना गलत है।
इसे समझने का आसान तरीका यह है कि ब्रेन हार्डवेयर है, और माइंड सॉफ्टवेयर।
- ब्रेन एक हार्ड कॉपी की तरह है — इसे छू सकते हैं, ऑपरेशन करके देख सकते हैं, यह शारीरिक रूप से मौजूद है।
- माइंड, और विशेष रूप से सबकॉन्शियस माइंड, ब्रेन के अंदर प्रोसेस होने वाले डेटा, थॉट्स, और फीलिंग्स का सॉफ़्टवेयर या प्रोसेसिंग सिस्टम है।
यानी, सबकॉन्शियस माइंड कोई फिजिकल हिस्सा नहीं है; यह ब्रेन के अंदर डेटा प्रोसेसिंग का तरीका है जो हमारी आदतों, विश्वासों और सोच को नियंत्रित करता है।
इस प्रोसेसिंग को हम माइंड कहते हैं। जो थॉट्स आ रहे हैं, वही माइंड है।
हमारे माइंड के तीन लेवल होते हैं:
-
कॉन्शियस माइंड
-
सबकॉन्शियस माइंड
-
अनकॉन्शियस माइंड
अनकॉन्शियस माइंड:
जब आप अभी सांस ले रहे हैं, आप शायद ध्यान नहीं दे रहे, फिर भी आप सांस ले रहे हैं। आपकी हार्टबीट चल रही है, आप इसे कॉन्शियसली कंट्रोल नहीं कर रहे हैं। आंखें ऑटोमेटिकली ब्लिंक कर रही हैं। ये सब चीजें अनकॉन्शियसली होती हैं ताकि आपका शरीर जिंदा रहे।
अनकॉन्शियस माइंड का रोल यही है कि वह आपके सर्वाइवल के लिए जरूरी कार्यों को ऑटोमेटिक मोड में चलाता रहे। रात को आप सो रहे होते हैं, लेकिन अनकॉन्शियस माइंड लगातार काम कर रहा होता है।
कॉन्शियस माइंड:
कॉन्शियस माइंड जागृत अवस्था है। जब आप एक्टिव स्टेट में कोई भी काम करते हैं या कोई निर्णय लेते हैं, तो आप कॉन्शियसली कर रहे होते हैं।
सबकॉन्शियस माइंड:
सबकॉन्शियस माइंड वह माइंड है जो पहले कॉन्शियस था। जब आप किसी काम को बार-बार करते हैं, जैसे साइकिल चलाना या कार चलाना, तो वह काम पहले कॉन्शियसली किया जाता है। धीरे-धीरे वही काम सबकॉन्शियसली होने लगता है।
उदाहरण: पहले जब आप साइकिल चलाते थे, आपको हर स्टेप पर ध्यान देना पड़ता था। अब आप साइकिल चला रहे हैं, लेकिन आपके सबकॉन्शियस माइंड ने यह प्रोसेस सीख लिया है। यही सबकॉन्शियस माइंड का जादू है — एक बार सीखने के बाद यह कार्य स्वतः चलता है।
पहले हम खाना कॉन्शियसली खाते थे। पहले पूजा करते थे कॉन्शियसली, नहाते थे कॉन्शियसली, ट्रैवल करते थे कॉन्शियसली, और वीडियो बनाते थे कॉन्शियसली। अब हम ये सारे काम सबकॉन्शियसली कर रहे हैं।
उदाहरण के तौर पर, अब जब आप पूजा में बैठते हैं, तो अधिकांश काम ऑटोमेटिक हो गया है। पहले आपकी पूरी एनर्जी पूजा में लगती थी, लेकिन अब कई बार यह सिर्फ फॉर्मेलिटी बन गया है।
पहले हनुमान चालीसा याद करते समय, उसे याद करने में कॉन्शियस एनर्जी लगती थी। पहले नहाने में भी ध्यान देना पड़ता था। अब ये सब ऑटोमेटिक हो गया है। पहले खाना खाते समय पूरी फोकस उसी पर होती थी, अब अक्सर हम खाना खाते हुए वीडियो देखते हैं या कोई और काम कर रहे होते हैं — कई बार हमें पता ही नहीं चलता कि खाना कब खत्म हो गया।
यही सबकॉन्शियस माइंड करता है — जो काम आप पहले कॉन्शियसली करते थे, उसे ऑटोमेट कर देता है।
साइंटिफिक रीजनिंग:
जब हम कोई काम कॉन्शियसली करते हैं — जैसे खाना खाना, ट्रैवल करना, कार ड्राइव करना या बातचीत करना — हमारा दिमाग हर स्टेप पर फोकस करता है। धीरे-धीरे यह पैटर्न सबकॉन्शियसली सीख जाता है और अब वही काम बिना ज्यादा सोच या एनर्जी लगाए चलने लगता है। यही कारण है कि हमारा सबकॉन्शियस माइंड इतना शक्तिशाली है — यह हमें थकावट कम करने और नई चीज़ों पर फोकस करने में मदद करता है।
तो अब हमारे पास तीन माइंड्स हैं:
- कॉन्शियस माइंड – जागृत अवस्था में थॉट्स और निर्णय।
- सबकॉन्शियस माइंड – कॉन्शियस कामों को ऑटोमेट करना।
- अनकॉन्शियस माइंड – शरीर की ऑटोमेटिक और सर्वाइवल फंक्शंस।
सबकॉन्शियस माइंड हमारे जीवन और परफॉर्मेंस के लिए सबसे महत्वपूर्ण है।
जब आप कोई नया काम करते हैं, तो उसमें हमारी बहुत ऊर्जा लगती है। उदाहरण के लिए, पहली बार कार चलाना, पहली बार किसी नई जगह जाना, या पहली बार YouTube वीडियो बनाना — उस समय कितनी एनर्जी लगती है, यह आप महसूस कर सकते हैं।
- कैमरा कैसा होना चाहिए?
- व्यू कैसा होना चाहिए?
- नाम क्या रखना चाहिए?
पहली बार यह सब करते समय आप पूरी तरह से कॉन्शियसली काम कर रहे होते हैं, इसलिए आपकी लगभग 80% ऊर्जा लगती है।
यूनिवर्स ने हर इंसान को — चाहे वह अमीर हो या गरीब — बराबर ऊर्जा दी है। हर सुबह आप उठते हैं एक सीमित मात्रा में ऊर्जा के साथ। दिन भर यह धीरे-धीरे घटती जाती है और शाम तक आप थक जाते हैं। अगली सुबह फिर वही लिमिटेड ऊर्जा मिलती है।
इसलिए यह पूरी तरह आप पर निर्भर करता है कि आप उस ऊर्जा को कहाँ और कैसे निवेश करते हैं। आपकी ऊर्जा का सही निवेश तय करता है कि आप अमीर या गरीब बनेंगे।
आपकी एनर्जी का ध्यान (Attention of your energy) आपके सबकॉन्शियस माइंड के लिए सिग्नल की तरह काम करता है। जब आप किसी चीज़ में रुचि दिखाते हैं और सोचते हैं, "मैं इसे पाना चाहता हूँ, मुझे इसके रास्ते दिखाओ," तो आप अपने सबकॉन्शियस माइंड को यही संदेश दे रहे होते हैं।
सबकॉन्शियस माइंड की भाषा सीधे-सीधे समझ में नहीं आती, यह संकेतों और फोकस के माध्यम से काम करती है। इसे समझने के लिए इसे इंस्टाग्राम एल्गोरिथम के उदाहरण से समझ सकते हैं:
- आप इंस्टाग्राम पर किसी रील को देखते हैं और उस पर क्लिक करते हैं।
- यह सिग्नल एल्गोरिथम को यह बताता है कि यह कंटेंट आपके लिए इंटरेस्टिंग है।
- इसके बाद एल्गोरिथम आपको उसी प्रकार का और कंटेंट दिखाता है।
यही तरीका आपके सबकॉन्शियस माइंड के साथ भी काम करता है। जब आप लगातार किसी चीज़ पर ध्यान केंद्रित करते हैं, उसकी खोज करते हैं और अपने फोकस के माध्यम से संकेत भेजते हैं, तो यूनिवर्स उसी प्रकार से आपके लिए अवसर और रास्ते प्रस्तुत करता है।
आप खुद इसे ट्राय कर सकते हैं — जैसे इंस्टाग्राम पर किसी तरह का कंटेंट देखकर, उसके चार-पाँच वीडियो देखें और शेयर करें, तो पूरी फीड उसी प्रकार के कंटेंट से भर जाएगी।
यूनिवर्स भी इसी तरह काम करता है — आप जो ध्यान और ऊर्जा दे रहे हैं, वही आपके जीवन में आकर्षित होता है।
यूनिवर्स को आपने सिग्नल दिया, जब आप अपनी एनर्जी और ध्यान किसी भी इवेंट पर लगाते हैं — चाहे वह पॉजिटिव हो या नेगेटिव। उदाहरण के लिए, अगर आप किसी लड़ाई को देखते हैं और बस खड़े होकर उसे देख रहे हैं, तो आप यूनिवर्स को सिग्नल दे रहे हैं:
"गिव मी इसी तरह के इंसिडेंट्स इन माय लाइफ।"
सिर्फ देखने से नहीं, बल्कि आपका ध्यान और फोकस इस पर जा रहा है। सबकॉन्शियस माइंड को यह पता नहीं है कि अच्छा है या बुरा; उसे केवल विजुअल और फोकस मिलते हैं। अगर आपको किसी लड़ाई या नेगेटिव एक्टिविटी में मज़ा आता है, तो सबकॉन्शियस माइंड इसे पहचानकर आपकी जिंदगी में इसी तरह की चीज़ें आकर्षित करता है।
यही कारण है कि जब आप लगातार नेगेटिव टॉक करते हैं या बुराई पर फोकस करते हैं, तो आपकी जिंदगी में और बुराइयाँ और नेगेटिव सिचुएशंस दिखाई देने लगते हैं। और आप इसे बार-बार एंजॉय करते हैं।
इसका मतलब यह है कि आप ही अपने जीवन के क्रिएटर हैं। कोई और नहीं। यूनिवर्स ने सारी शक्ति आपके अंदर दी है। बाहर कुछ भी नहीं है; सब कुछ आपके अंदर है।
इसलिए, जब हम सबकॉन्शियस माइंड के रोल की बात करते हैं, तो यह समझना बहुत जरूरी है: मेहनत करना और स्ट्रेटजी सीखना पर्याप्त नहीं है। अगर आपका माइंडसेट और फोकस सही दिशा में नहीं है, तो आप अमीर नहीं बन पाएंगे, चाहे आप कितनी भी मेहनत करें।
मैं प्रैक्टिकली प्रूफ करके दिखा देता हूँ। स्ट्रेटजी जान भी ली और फिर भी — मैं आपके खाते में अभी इंस्टेंट ₹5 करोड़ डाल दूँ, तो क्या होगा? कितने चाहिए थे? 5 करोड़, 10 करोड़? हर इंसान जब मेहनत करता है, तो उसके लिए एक पैरामीटर होता है — जैसे 10 करोड़ आ जाएँ, तो जिंदगी सेट हो जाएगी। किसी के लिए यह राशि 1 करोड़ हो सकती है, किसी के लिए 10 करोड़, किसी के लिए 100 करोड़।
अगर मैं कहूँ कि आज से आपको मुकेश अंबानी की जगह पर बैठा देता हूँ और आप Reliance इंडस्ट्री के डायरेक्टर बन गए, तो क्या होगा? सवाल यही उठता है: क्या आप करोड़पति बन पाएंगे?
उदाहरण के लिए, बिहार से सुशील कुमार आए और 7 करोड़ जीतकर गए। लेकिन वे अभी उसी जगह हैं, जहाँ पहले थे।
एक सर्वे में यह पता चला कि जो लोग रातोंरात अमीर बन जाते हैं — चाहे वह लॉटरी लगने से हो, जमीन या सोना निकलने से हो, या अचानक कोई बड़ी सफलता मिल जाए — लगभग 80% लोग 5 साल बाद वहीँ पहुँच जाते हैं जहाँ से उन्होंने शुरुआत की थी।
मतलब, रातोंरात की सफलता और लक (किस्मत) पर आधारित अमीरी स्थायी नहीं होती। असली स्थायी सफलता आपके माइंडसेट, फ्रीक्वेंसी और लगातार मेहनत करने की आदत पर निर्भर करती है।
80% लोग, यानी मेजर ऑडियंस, वहीँ फंस जाते हैं। एक के साथ ऐसा होता है, दो के साथ, तीन के साथ — और इसी तरह 80 लोगों के साथ ऐसा होता है। इसका मतलब है कि कहीं न कहीं, बैकएंड में कोई प्रिंसिपल काम कर रहा है। कुछ न कुछ तो है जो उनकी लाइफ को कंट्रोल कर रहा है।
और वही 20% लोग जो बच जाते हैं, उन्होंने वो सीख लिया या उनके पास वह चीज़ कहीं से आ गई। यही प्रिंसिपल है जो आपके गरीब रहने का कारण बन रहा है। आपका दिमाग ही आपको गरीब बना रहा है।
क्यों? क्योंकि दिमाग का एक प्रिंसिपल है जिस पर यह काम करता है। यह सबसे गहरा सीक्रेट है। अगर आप इसे समझ गए, तो आप पैसे के पीछे भागना बंद कर देंगे। दिमाग को समझेंगे और इसे अपने लिए इस्तेमाल करना सीखेंगे।
मैं कभी पैसे के पीछे नहीं भागा। फिर भी मैंने अपनी कंपनी से 100 करोड़ का रेवेन्यू जनरेट किया। मैं जानता हूँ कि पैसा सिर्फ़ एक बाय-प्रोडक्ट है — वह आना ही आना है। इसमें कोई मुश्किल वाली बात नहीं है।
हमारे ब्रेन का फिनोमिना क्या है? ब्रेन का प्रिंसिपल क्या है?
ब्रेन हजारों साल पहले डिज़ाइन हुआ था ताकि आपको जिंदा रखा जा सके। उस समय जीवन इतना सरल नहीं था। सर्वाइवल ही मुख्य चुनौती और एजेंडा था। भाई, बस आज जिंदा रहना है। खाना ढूंढना है या पानी, पीना है — यही सबसे बड़ी चुनौती थी।
आज स्थिति बदल गई है। अगर पानी या खाना थोड़े देर के लिए नहीं मिले, तो फर्क नहीं पड़ता। आप आसानी से बिसलरी खरीद लेते हैं। लेकिन तब, यह जीवन का एक वास्तविक संघर्ष था।
आपका ब्रेन मूलतः डिज़ाइन किया गया है आपको जीवित रखने के लिए। ब्रेन हर चीज़ का NEP (Neuro-Dependency Point) बनाता है, जो आपके जिंदा रहने के लिए जरूरी है।
उदाहरण के तौर पर, अगर आप रनिंग कर रहे हैं और आपकी हार्टबीट तेज हो गई है, तो ब्रेन आपको कहता है: “रुक जा, थक गया है।” अगर ब्रेन यह सिग्नल नहीं देता कि थक गए हो, तो आप अपनी शारीरिक सीमा पार कर सकते हैं और चोटिल या थककर गिर सकते हैं।
ब्रेन आपके आस-पास के वातावरण को भी मॉनिटर करता है। जैसे, अगर टेंपरेचर बदल जाए, तो वह आपको सिग्नल देता है: “AC चला दो या रिमोट उठाकर तापमान एडजस्ट करो।”
साधारण शब्दों में, आपका ब्रेन आपके सर्वाइवल और सुरक्षा का गार्जियन है, जो लगातार आपके शरीर और आसपास के वातावरण को मॉनिटर करता है और जरूरी सिग्नल भेजता है।
आपकी ब्रीदींग का एक NEP (Neuro-Dependency Point) है। आपके ब्लड प्रेशर का एक NEP है। आपकी बॉडी में हर चीज़ का NEP है, जो आपके जिंदा रहने के लिए जरूरी है। और जैसे ही इसमें कोई प्लस-माइनस या असामान्य परिवर्तन होता है, ब्रेन तुरंत सिग्नल भेजता है: “कुछ गलत हो रहा है, इसे पहले जैसा बनाओ।”
ब्रेन कहता है कि हार्टबीट को नियंत्रित करो, तापमान को सामान्य करो, आराम करो और सिस्टम को वापस संतुलित स्थिति में ले आओ।
अब यह सिस्टम मनी के लिए भी काम करता है। आपके पैसे का भी एक NEP है। अगर आपके पैसे में अचानक बदलाव आता है — बहुत अधिक या बहुत कम — तो आपका ब्रेन आपको वापस संतुलित स्थिति में लाने के लिए सिग्नल भेजता है।
यह समझना जरूरी है कि जब पैसा आता है, तो कई लोगों में घमंड और ईगो उत्पन्न हो जाता है। उन्हें लगता है कि वे दूसरों से ऊपर हैं। वे दूसरों को छोटा दिखाने की कोशिश करते हैं, जलन पैदा करते हैं, और बड़ी मटेरियलिस्टिक चीज़ें खरीदते हैं।
लेकिन ब्रेन का काम है सर्वाइवल और संतुलन बनाए रखना। इसलिए, जब आपका व्यवहार और सोच घमंड और ईगो से प्रभावित होती है, तो ब्रेन आपको वापस उस स्थिति में ले आता है जहां आप पहले थे — संतुलित और नियंत्रित। यही कारण है कि आपके डिसीजंस कभी-कभी आपके लिए गरीबी या असफलता की ओर ले जा सकते हैं। ब्रेन को सिग्नल मिलता है: “कुछ सही नहीं हो रहा, इसे सामान्य स्थिति में ले आओ।”
अगर बिना अपनी मनी और सक्सेस की सबकॉन्शियस प्रोग्रामिंग को बदले, मैं आपको आज Reliance Industries का डायरेक्टर बना भी दूँ, तो आप फिर भी वहीं आ जाएंगे जहां आप अभी हैं। यही कारण है कि केवल क्विक और इंस्टेंट सक्सेस का सपना देखना पर्याप्त नहीं है।
इसलिए जरूरी है कि आप अपनी आइडेंटिटी, बिलीफ और फ्रीक्वेंसी बदलें। अपने सबकॉन्शियस माइंड को ट्रेन करें, ताकि वह आपकी नई आदतों, नई सोच और नई संभावनाओं के अनुरूप काम करे।
जैसा कि पहले बताया गया, कॉन्शियस माइंड वह है जो हम एक्टिव तरीके से इस्तेमाल करते हैं। जब आप कोई काम कॉन्शियसली करते हैं, तो बहुत ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है। वहीं सबकॉन्शियस माइंड वही काम ऑटोमेटिक मोड में ले लेता है। यही कारण है कि बार-बार किसी एक्टिविटी को दोहराने से वह आदत बन जाती है और ऊर्जा बचती है।
हमारे ब्रेन की ऊर्जा सीमित है। अगर हम हर काम को कॉन्शियसली करते रहें, तो दिन में केवल कुछ ही काम पूरे कर पाएंगे। इसलिए सबकॉन्शियस माइंड इसे ऑटोमेट कर देता है।
जब आप किसी चीज़ को लगातार करते हैं — चाहे वह नेगेटिव हो या पॉजिटिव — सबकॉन्शियस माइंड उसे ऑटोमेट कर देता है। यही प्रैक्टिस का महत्व है। बार-बार दोहराने से मसल मेमोरी बनती है और आदत बन जाती है।
निष्कर्ष: सबकॉन्शियस माइंड आपकी आदतों को नियंत्रित करता है, आदतें आपके एक्शन को प्रभावित करती हैं, और आपके एक्शन आपके रिजल्ट्स को बनाते हैं। और यही रिजल्ट्स आपकी पूरी जिंदगी को क्रिएट करते हैं।
कॉन्शियस और सबकॉन्शियस माइंड का रोल बहुत अहम है। सबकॉन्शियस माइंड की अपनी भाषा होती है, जो आपको लगातार गाइड करती रहती है। अक्सर हमें इसका एहसास नहीं होता, लेकिन यह हमेशा आपके लिए काम कर रहा होता है।
अगर आप सबकॉन्शियस माइंड को नेगेटिव दिशा में निर्देश देंगे, तो वह नेगेटिव रिजल्ट देगा। और अगर आप इसे पॉजिटिव दिशा देंगे, जैसे अमीर बनने या किसी लक्ष्य को अचीव करने के लिए, तो यह आपको उस दिशा में गाइड करेगा। जैसे आपने कभी सोचा होगा कि “मुझे YouTube शुरू करना है, मुझे इतने सब्सक्राइबर चाहिए, मुझे यह अचीव करना है” — आपका सबकॉन्शियस माइंड लगातार आपको उस लक्ष्य की तरफ मार्गदर्शन करता है, जैसे आपके सामने एक टॉर्च हो।
यह थॉट प्रोसेस और इंस्ट्रक्शन का खेल है। आपके विचार, आपकी फ्रीक्वेंसी और सबकॉन्शियस माइंड मिलकर आपके जीवन में परिणाम लाते हैं। जब आपका ब्रेन कोई विचार सोचता है, तो यह फ्रीक्वेंसी की तरह बाहर निकलता है और उसी चीज़ को आप अट्रैक्ट करने लगते हैं।
लेकिन विचारों से पहले एक और स्टेप आता है: एनवायरमेंट। आपके विचार और आपकी क्रिएटिविटी सीधे तौर पर आपके वातावरण से प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि पढ़ाई के लिए पेरेंट्स अलग स्टडी रूम बनाते हैं, म्यूजिक रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो बनाए जाते हैं, और हॉस्पिटल में थिएटर बनाए जाते हैं। सही एनवायरमेंट आपके थॉट्स और क्रिएटिविटी को सबसे अच्छा सपोर्ट देता है।
संक्षेप में, सबकॉन्शियस माइंड, आपकी फ्रीक्वेंसी और आपका एनवायरमेंट — ये तीनों मिलकर आपकी सोच, आपके निर्णय और आपके परिणाम तय करते हैं।
अगर आप सड़क पर जा रहे हैं और किसी कूड़े के ढेर की गंदी खुशबू आती है, तो आप तुरंत अपनी नाक ढक लेते हैं। इसका कारण यह है कि वह गंध आपके थॉट्स को प्रभावित कर रही है। यही कारण है कि आपका वातावरण आपके विचारों और मानसिक स्थिति को सीधे प्रभावित करता है।
आपके शरीर के 60 ट्रिलियन सेल्स भी आपके थॉट्स के एनवायरनमेंट का हिस्सा हैं। ये सेल्स ऊर्जा पैदा करते हैं और आपकी सोच के अनुसार प्रतिक्रिया देते हैं। यदि कोई व्यक्ति हमेशा उदास, गिल्ट या क्रोध में रहता है, तो उसकी बॉडी भी उसका साथ नहीं देती, क्योंकि उसका एनवायरनमेंट टॉक्सिक हो गया है।
थॉट्स इलेक्ट्रिकल नेचर के होते हैं। आपके विचार सीधे किसी ऑब्जेक्ट को नियंत्रित नहीं कर सकते; बल्कि यह केवल आपकी बॉडी को प्रभावित करते हैं। और फिर आपकी बॉडी से ही एक्शन और परिणाम उत्पन्न होते हैं।
जब हम फ्रीक्वेंसी की बात करते हैं, तो ज्यादातर लोग यह गलती करते हैं कि केवल सोचने पर निर्भर रहते हैं। बैठकर केवल सोचते रहना कि “मैं अमीर बन जाऊंगा” या “मेरी सेहत बेहतर हो जाएगी” — यह काम नहीं करता। लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन सिर्फ सोचने से काम नहीं करता।
सोचना केवल 50% है, लेकिन बाकी 50% आपकी इमोशंस, वाइब्स और फीलिंग्स उस विशेष थॉट की तरफ होती हैं। यही कारण है कि केवल सोचने से कुछ हासिल नहीं होता; आपको अपनी फ्रीक्वेंसी, भावना और एक्टिव एक्शन के साथ अपने थॉट्स को प्रोग्राम करना पड़ता है।
जब आपने अपना चैनल शुरू किया, तो उस ड्रीम और गोल के साथ एक इमोशन जुड़ी होती है। जितने भी लोग आज सफल हुए हैं, उनके पीछे हमेशा उनकी गोल और ड्रीम से जुड़ी इमोशंस होती हैं।
इमोशंस यात्रा कर सकती हैं और ये मैग्नेटिक नेचर की होती हैं। कभी आपने महसूस किया होगा कि किसी व्यक्ति के पास खड़े होने मात्र से आपको एक अलग ऊर्जा या महसूस होती है। यह अनुभव धार्मिक या पॉजिटिव जगहों पर भी होता है — जैसे नीम करोल बाबा, वैष्णो देवी दरबार, या किसी रीजनल धार्मिक स्थल पर जाकर आपको वहाँ पॉजिटिव वाइब्स और ऊर्जा महसूस होती है।
थॉट और फीलिंग मिलकर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक सराउंडिंग बनाते हैं। केवल सोचने से नहीं, बल्कि उस थॉट में भावना (फीलिंग) डालकर ही आप अपनी फ्रीक्वेंसी क्रिएट करते हैं। यह फ्रीक्वेंसी यूनिवर्स में ट्रैवल करती है और वही चीज़ें आकर्षित करती है, जो आप चाहते हैं।
यूनिवर्स में हर चीज़ पहले से मौजूद है। यह केवल मैचिंग फ्रीक्वेंसी का मामला है। जैसे रेडियो फ्रीक्वेंसी — यदि आप सही चैनल से मैच कर लें, तो वही सिग्नल आपको मिलेगा।
आपको बस अपनी फ्रीक्वेंसी को उस स्थिति के अनुरूप बदलना है, और आप देखेंगे कि आपकी जिंदगी में कमाल होने लगेगा।
वो जो शब्द होता है ना “लक”, वही आ जाएगा।
जिस चीज को छुओगे, वो सोना बन जाएगी। और तुम खुद कहोगे — “मैं जो भी फैसले लेता हूं, वायरल हो जाते हैं। मैं जो भी करता हूं, कमाल हो जाता है। जो भी ट्रेड लेता हूं, वही प्रॉफिट में चला जाता है। मैं जो जमीन खरीदता हूं, उसके रेट बढ़ जाते हैं।”
तुम्हें लगेगा कि जैसे तुम्हारे पास कोई जादू है — यू विल फील लाइक अ गॉड।
अब असली सवाल यह है —
“हम हाई फ्रीक्वेंसी में जाएंगे कैसे?”
क्योंकि इसकी पावर तो समझ आ गई, पर अब तरीका जानना जरूरी है।
दीपक, अगर आप मुझसे पूछो कि
“सर, एक ऐसी टेक्निक बता दो जो हर समस्या का समाधान हो।”
तो मैं कहूंगा — हां, है ऐसी एक चीज।
तो मेरा जवाब होगा —
वो चीज है “ग्रेटिट्यूड प्रैक्टिस” (कृतज्ञता का अभ्यास)।
अगर आप अपनी जिंदगी में सिर्फ एक काम एडिशनली शुरू कर दें —
कोई खर्चा नहीं, कोई मुश्किल नहीं —
बस हर दिन आभार व्यक्त करना शुरू कर दें,
तो आपकी जिंदगी में चमत्कार शुरू हो जाएंगे।
ग्रेटिट्यूड — सिर्फ ग्रेटिट्यूड। ओके?
सिर्फ कृतज्ञता।
मेरा इस एक्सरसाइज पर इतना गहरा विश्वास है कि मैं पूरे कन्विक्शन के साथ कह सकता हूं — ग्रेटिट्यूड बदल देती है जिंदगी।
आप गाइडेड ग्रेटिट्यूड भी कर सकते हैं।
मेरी खुद की बनाई हुई NLP-बेस्ड ग्रेटिट्यूड जर्नल है, जिसे मैंने खुद डिज़ाइन किया है क्योंकि इससे मुझे बेहद अद्भुत परिणाम मिले।
अगर आप गाइडेड जर्नल नहीं करना चाहते, तो मैनुअली, यानी खुद से भी कर सकते हैं।
लेकिन खुद से करने में कई बार दिक्कत यह होती है कि कंसिस्टेंसी टूट जाती है।
कई बार समझ नहीं आता कि “करना कैसे है?”
इसलिए गाइडेड जर्नल में एक स्ट्रक्चर होता है, जिससे आप रोज आसानी से कर सकते हैं।
कैसे करना है?
रोज सुबह उठते ही — सबसे पहला काम,
वह जर्नल अपने बेडसाइड या तकिए के पास रखिए।
उठकर उसमें लिखना शुरू कीजिए।
उसमें कुछ बेसिक चीजें पहले से लिखी होती हैं जिन्हें आपको फॉलो करना है।
साथ ही, हर दिन पांच नई चीजों के लिए थैंकफुल (ग्रेटफुल) बनिए।
हर दिन नई चीजें होनी चाहिए — रिपीट नहीं।
60 दिनों में आप 300 नई चीजों के लिए आभार व्यक्त करेंगे।
बस यही करना है — बहुत ही सिंपल।
अब आप इसके रिज़ल्ट्स देखना —
जो भी इसे करेगा, 15 दिनों में फर्क महसूस करेगा।
10 या 15 दिन के अंदर ही आप कहेंगे,
“सर, मेरी पूरी लाइफ बदल गई!”
अब सवाल आता है —
“लिखने से फर्क कैसे पड़ता है?”
कई लोग तो बहुत लोअर फ्रीक्वेंसी पर ऑपरेट कर रहे होते हैं।
उनसे जब कहा जाता है “थैंकफुल बनो,” तो वो कहते हैं —
“सर, मेरी जिंदगी में तो कुछ अच्छा हुआ ही नहीं, मैं किसके लिए थैंकफुल बनूं? सब कुछ बुरा ही हुआ है।”
यही से असली बदलाव की शुरुआत होती है।
जब उन्होंने लिखना शुरू किया, तो उसमें उनका कॉन्शियस एफर्ट लगा — यानी पूरा ध्यान और ऊर्जा।
और जब उन्होंने ऊर्जा लगाई, तो उनकी फ्रीक्वेंसी शिफ्ट होने लगी।
ग्रेटिट्यूड यानी कृतज्ञता,
फ्रीक्वेंसी को लोअर से हायर लेवल पर शिफ्ट करने का सबसे आसान और सबसे शक्तिशाली तरीका है।
जब आप थैंकफुल होने की भावना रखते हैं, तो आप कॉन्शियसली अपनी इमोशन्स की फ्रीक्वेंसी बदलते हैं।
इसका मतलब यह नहीं कि अब आपकी जिंदगी में बुरी चीजें होना बंद हो जाएंगी।
बल्कि फर्क यह पड़ेगा कि आपके अंदर बदलाव आएगा।
आपकी इमोशन्स, आपकी सोच, आपका नजरिया बदल जाएगा।
हो सकता है, पहले 15 या 30 दिनों तक वही चीजें घटित होती रहें जो पहले होती थीं —
लेकिन अब आपका देखने का नजरिया बदल जाएगा।
पहले आपका नजरिया था —
“Life is happening to me.”
मतलब, जो कुछ भी हो रहा है, वो मेरे साथ हो रहा है, और उसे बाहरी परिस्थितियाँ कंट्रोल कर रही हैं।
लेकिन जब आप ग्रेटिट्यूड प्रैक्टिस करते हैं, तो नजरिया बदल जाता है —
“Life is happening through me.”
मतलब, अब जीवन मेरे जरिए घटित हो रहा है। मैं उस ऊर्जा का एक जरिया हूँ।
कुछ समय बाद आपका पूरा थॉट प्रोसेस चेंज हो जाता है।
पहले आप सोचते थे —
“Life is happening to me (मेरे साथ हो रही है)”
अब आप सोचते हैं —
“Life is happening through me (मेरे जरिए हो रही है)।”
और यह बहुत बड़ा बदलाव है।
पहले आप परिस्थितियों, लोगों या चीजों को ब्लेम करते थे।
अब आप उन्हीं चीजों को क्रेडिट देने लगेंगे।
आपका फोकस शिफ्ट हो जाएगा —
पहले फोकस बुरे पर था, अब अच्छा देखने लगे।
पहले भी जिंदगी में अच्छी चीजें थीं, लेकिन आपका ध्यान सिर्फ नेगेटिव पर जाता था,
क्योंकि माइंड उसी पैटर्न में ट्रेन था।
अब जब आपने कॉन्शियसली फोकस किया अच्छी चीजों पर,
तो वहीं से आपके इमोशन्स बदलने लगते हैं।
इमोशन्स बदलेंगे तो फ्रीक्वेंसी बदलेगी,
और फ्रीक्वेंसी बदलेगी तो रीएलिटी बदल जाएगी।
अब सवाल यह आता है —
कैसे जानें कि यह चीज़ सच में काम कर रही है या नहीं?
कैसे चेक करें कि रिजल्ट मिल रहे हैं या नहीं?
मैं अब आपको इसका भी क्राइटेरिया बताता हूँ।
अच्छा, अब बात करते हैं — कैसे चेक करें कि यह चीज़ सच में काम कर रही है या नहीं?
मतलब, अगर आपने 60 दिन तक लगातार यह काम कर लिया —
ग्रेटिट्यूड जर्नल को रोजाना प्रैक्टिस किया —
तो मैं गारंटी से कह सकता हूँ, आपकी ज़िंदगी में जबरदस्त बदलाव दिखने लगेंगे।
कोई आपको यह सीक्रेट नहीं बताएगा।
दुनिया भर के लोग आपको महंगे-महंगे सॉल्यूशन्स देंगे,
लेकिन सिर्फ ₹800–₹900 की एक ग्रेटिट्यूड जर्नल आपकी पूरी लाइफ बदल सकती है।
अब समझिए, कैसे रिजल्ट चेक करने हैं।
जब आप 15, 30 या 60 दिन तक यह प्रैक्टिस करते हैं,
तो आपकी लाइफ में तीन बड़े बदलाव निश्चित रूप से दिखाई देंगे 👇
पहला बदलाव — सही लोग आपकी ज़िंदगी में आने लगेंगे।
30 दिन बाद आपको ऐसे लोग मिलेंगे
जो आपको आपके गोल के और करीब ले जाएंगे।
वो लोग अचानक ही आपकी लाइफ में एंटर करेंगे —
कभी इंस्टाग्राम या ईमेल पर कोई मेसेज आएगा,
कभी कोई अचानक रियल लाइफ में मिल जाएगा।
और आपको लगेगा — “यह तो किसी कारण से ही मिला है।”
संयोग अपने आप बनने लगेंगे।
दूसरा बदलाव — घटनाएँ आपके फेवर में होने लगेंगी।
अब आपकी लाइफ में ऐसी चीज़ें घटित होना शुरू होंगी
जो आपके फेवर में होंगी,
जो आपके एकॉर्डिंग होंगी।
नई opportunities मिलेंगी,
काम अपने आप सही दिशा में बढ़ने लगेगा।
तीसरा बदलाव — आपके रिज़ल्ट बदल जाएंगे।
पहले आप मेहनत करते थे, लेकिन
रिज़ल्ट नहीं मिलता था —
रील डालो, व्यू नहीं आते,
पोस्ट करो, रीच नहीं मिलती,
काम करो, फायदा नहीं होता।
लेकिन अब जब आपकी फ्रीक्वेंसी और इमोशन्स बदल गए,
तो अब वही मेहनत आपको 10x रिज़ल्ट देगी।
पहले जहाँ x मेहनत पर -10x रिज़ल्ट मिलता था,
अब उसी x मेहनत पर 10x पॉज़िटिव रिज़ल्ट मिलेगा।
मतलब —
सब कुछ वही रहेगा:
आप, आपका काम, आपकी मेहनत, आपका लक्ष्य।
बस आपकी फ्रीक्वेंसी बदल जाएगी।
और जब फ्रीक्वेंसी बदलेगी,
तो परिणाम अपने आप बदल जाएंगे।
लेकिन यह जितना सुनने में आसान लगता है, उतना आसान है नहीं।
असल में, दुनिया की सबसे आसान चीजें ही सबसे कठिन होती हैं।
और इसमें सबसे बड़ी चुनौती है — कंसिस्टेंसी।
अगर आप ग्रेटिट्यूड राइटिंग में कंसिस्टेंसी मेंटेन कर लेते हैं,
तो आप गेम चेंज कर सकते हैं।
हालांकि, मैं मानता हूँ कि आप 15–30 दिनों में बदलाव महसूस करेंगे,
लेकिन मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा —
जब भी कोई चीज़ करें, उसे बिना किसी उम्मीद के करें।
क्योंकि जब आप किसी काम को एक्सपेक्टेशन (उम्मीद) के साथ करते हैं,
और वह चीज़ आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती,
तो आप खुद ही नेगेटिव इमोशन में चले जाते हैं।
इसलिए, बिना किसी उम्मीद के करें।
बस करें, क्योंकि आप नई चीज़ आज़मा रहे हैं।
कुछ होगा या नहीं होगा, इस पर फोकस मत करें।
क्योंकि जब आपके इमोशंस नेगेटिव होते हैं,
तो आप अपने सबकॉन्शियस माइंड को लोअर फ्रीक्वेंसी पर ले जाते हैं,
और वही आपकी पूरी लाइफ को इंपैक्ट करता है।
इसलिए, जब हम मनी, सफलता या सक्सेस की बात करते हैं,
तो सफलता पहले अंदर आती है,
फिर बाहर प्रकट होती है।
बाहर की चिंता मत करें —
पहले अपने अंदर की सफलता पर ध्यान दें।
अब सवाल आता है — “अंदर की सफलता कैसी होती है?
हम तो अभी सफल हैं ही नहीं, तो अंदर सफलता कैसे महसूस करें?”
देखिए, जब आप कहते हैं —
“I will be a billionaire. I will be a millionaire.
मैं एक दिन अमीर बनूंगा।”
तो आप इनडायरेक्टली यह कह रहे हैं कि “मैं अभी अमीर नहीं हूँ।”
और यूनिवर्स हमेशा प्रेज़ेंट टेंस (वर्तमान काल) में काम करता है,
फ्यूचर में नहीं।
तो यूनिवर्स आपकी उसी सोच के अनुसार रियलिटी बना देता है —
“अभी नहीं हूँ।”
बस एक छोटा सा शिफ्ट कर दीजिए —
“I will be” को “I am” से बदल दीजिए।
यानी अब कहिए —
👉 I am rich.
👉 I am successful.
👉 I am grateful for my abundance.
और इसे फीलिंग के साथ कहिए।
वो इमोशन, वो फीलिंग अपने अंदर लाइए।
बार-बार बोलिए,
बार-बार उसके लिए थैंकफुल रहिए।
यही आपकी ज़िंदगी बदलने की असली शुरुआत है।
एक बहुत अमेजिंग कैच बताता हूँ आपको। जब ग्रेटिट्यूड प्रैक्टिस करो — यानी जब आप अपने ग्रेटिट्यूड जर्नल में लिखते हो — तो तीन तरह की थैंकफुलनेस लिखो:
1️⃣ जो पास्ट में हुआ उसके लिए धन्यवाद।
2️⃣ जो प्रेज़ेंट में है उसके लिए धन्यवाद।
3️⃣ और सबसे ज़रूरी — जो फ्यूचर में पाना चाहते हो, जो अभी तक हुआ ही नहीं है, उसके लिए भी धन्यवाद दो।
यही सबसे पावरफुल पॉइंट है।
उदाहरण के लिए:
“Thank you Universe for 1 million YouTube subscribers.”
या
“Thank you Universe for ₹1 crore in my bank account.”
भले ही अभी वह चीज़ आपके पास नहीं है, लेकिन उसे प्रेज़ेंट टेंस में बोलो।
“मैं बहुत आभारी हूँ कि मेरे अकाउंट में ₹1 करोड़ हैं।”
“Thank you Universe, thank you, thank you, thank you.”
अगर आपने यह लाइन सच्चे कन्विक्शन और फीलिंग के साथ बोली — तो आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे।
क्योंकि जब आप ऐसा बोलते हैं, तो आपका सबकॉन्शियस माइंड कंफ्यूज़ हो जाता है।
वो कहता है — “ये तो चीज़ अभी है नहीं, लेकिन बार-बार ये बोल क्या रहा है?”
और फिर वह चीज़ को रीअलिटी में लाने के लिए काम शुरू कर देता है।
आपका सबकॉन्शियस माइंड पुलिसवाले जैसा है।
जैसे कोई कपल कुंभ के मेले में अपने बच्चे को खो दे और पुलिस के पास जाए।
पुलिस पूछे — “फोटो है?”
वो कहें — “नहीं।”
“दिखता कैसा है?”
“वो भी नहीं बता सकते।”
अब पुलिस चाहे कितना भी ईमानदारी से ढूंढना चाहे — वो नहीं ढूंढ पाएगा।
ठीक यही सबकॉन्शियस माइंड के साथ होता है।
अगर आप उसे साफ़-साफ़ नहीं बताते कि आप क्या चाहते हैं,
तो वो भी नहीं ढूंढ पाएगा।
इसलिए जब आप अपने ग्रेटिट्यूड जर्नल में लिखते हैं,
तो क्लियर विज़ुअलाइज़ेशन के साथ लिखो —
फीलिंग्स के साथ, इमेजिनेशन के साथ,
और यूनिवर्स को बोलो —
“Thank you, thank you, thank you!”
जो आपको अमीर बनाना चाहता है — वो आपका सबकॉन्शियस माइंड है।
याद रखिए, आपका सबकॉन्शियस माइंड आपका गुलाम है, और वो आपके फ़ेवर में काम करता है।
उसका काम है — आपके आदेश को मानना।
लेकिन दिक्कत यह है कि ज़्यादातर लोग उसे सही आदेश ही नहीं देते।
अगर आपके पास “फोटो” ही नहीं है — यानी यह स्पष्ट नहीं है कि आपको क्या चाहिए —
तो वो कैसे देगा?
जब आप लिखते हो —
“I am rich.”
तो आप अपने सबकॉन्शियस माइंड को “फोटो” दे रहे हो —
आप कह रहे हो, “देखो, मुझे यही चाहिए।”
उस पल आपके भीतर वो इमोशंस और फीलिंग्स पैदा होने लगती हैं जो रिचनेस से जुड़ी होती हैं।
और उसी दिन से आपका चलना, बोलना, सोचने का तरीका,
पढ़ने की आदत, लोगों से बात करने का तरीका —
सब कुछ बदलना शुरू हो जाता है।
हर चीज़ में रिचनेस दिखने लगती है।
आज से करीब 15 साल पहले, जब मैं कॉलेज में था,
तब भी मैं ऐसे बिहेव करता था जैसे मैं अमीर हूँ।
मैं रिच की तरह सोचता, रिच की तरह बोलता,
रिच की तरह पढ़ता और उन्हीं जगहों पर बैठता जहाँ अमीर लोग बैठते थे।
मैं वही किताबें पढ़ता था जो सफल लोग पढ़ते हैं,
वही आदतें अपनाता था जो करोड़ों की कंपनियाँ चलाने वाले लोग अपनाते हैं।
और यही वजह है कि आज मैं यहाँ हूँ।
अगर आप अमीर बनना चाहते हैं,
तो पहले आपको उस रिच इंसान की आइडेंटिटी अपने अंदर लानी होगी।
एक सवाल सोचिए —
अगर कोई आर्टिस्ट शाहरुख खान की आवाज़, एक्टिंग, चाल-ढाल, स्टाइल — सब कुछ कॉपी कर ले,
या अमिताभ बच्चन जी की हर चीज़ नकल कर ले,
तो क्या वो उनकी तरह सफल हो जाएगा?
नहीं।
क्योंकि उसने सिर्फ आउटर सेल्फ कॉपी किया है,
इनर सेल्फ नहीं।
सफलता की असली जड़ इनर आइडेंटिटी में होती है।
और उस आइडेंटिटी को पाने का एक बहुत आसान तरीका है —
अपने एनवायरनमेंट को बदलो।
क्योंकि आपका वातावरण ही आपकी पहचान बनाता है।
एक बात याद रखो —
अगर तुम उस रूम में सबसे स्मार्ट व्यक्ति हो,
तो तुम गलत रूम में हो।
मैं हमेशा यह मानता हूँ कि
जिसकी तरह बनना है, उसकी संगति में रहो।
क्योंकि संगति से उसकी आइडेंटिटी, उसकी एनर्जी और उसकी क्वालिटी अपने अंदर आने लगती है।
मैं आज भी हर किसी से कुछ न कुछ सीखता हूँ।
आपसे भी अभी कई चीजें सीखी —
जब आप नीचे बैठकर बोल रहे थे, मैंने आपकी क्वालिटी को अपने अंदर ले लिया।
मुझे किसी की अच्छी बात अपनाने में ज़्यादा समय नहीं लगता,
और मैं बुरी चीज़ों को देखने की कोशिश ही नहीं करता।
क्योंकि सफलता और अमीरी की असली शुरुआत होती है —
अपने इनर सेल्फ से।
और जब वो बदल जाता है —
तो पूरी लाइफ बदल जाती है।
अब आपके मन में जो सवाल था —
क्यों 80% लोग गरीब हैं और सिर्फ 20% लोग अमीर हैं?
तो इसका जवाब बहुत सरल है —
वो 20% लोग इसलिए अमीर हैं क्योंकि उनकी “इनर आइडेंटिटी” में अमीरी बस चुकी है।
वे अपने आपको अंदर से ही अमीर मानते हैं।
अगर आप अपनी इनर आइडेंटिटी को बदल लेते हैं,
तो आपकी रियलिटी अपने आप बदल जाती है।
अंदर एक बदलाव लाओ —
बाहर अपने आप चेंज आ जाएगा।
अब इसे एक आसान प्रयोग से समझते हैं।
मान लीजिए, आपके हाथ में एक रिंग (अंगूठी) है।
आप उसे उतारते हैं और एक धागे में बाँध लेते हैं।
अब अपने मन में केवल एक विचार लाओ —
सोचो कि यह रिंग आगे और पीछे की दिशा में हिल रही है।
बस अपने थॉट्स के माध्यम से उसे मूव करते हुए कल्पना करो —
कि यह रिंग आगे जा रही है, फिर पीछे आ रही है।
आगे... फिर पीछे...
आप कुछ ही पल में देखेंगे कि रिंग सचमुच हिलने लगती है।
यह एक छोटा-सा उदाहरण है कि हमारे थॉट्स की भी एक फ्रीक्वेंसी होती है।
हर विचार एक वाइब्रेशन पैदा करता है।
और यह वाइब्रेशन यूनिवर्स में ट्रैवल करता है और आपकी रियलिटी को आकार देता है।
इसलिए जब आप सोचते हैं,
तो आपकी सोच ही आपकी दुनिया को बनाती है।
अब अपने मन में एक कन्विक्शन (दृढ़ विश्वास) लाओ और पूरी एकाग्रता के साथ यह सोचो —
“यह रिंग मूव कर रही है… मेरी तरफ, फिर आपकी तरफ।”
बस इस थॉट को अपने माइंड में लाओ —
मेरी तरफ... आपकी तरफ... मेरी तरफ... आपकी तरफ।
अब अपने मन में नया विचार लाओ —
“यह रिंग अब लेफ्ट-राइट जा रही है।”
सिर्फ सोचना है — लेफ्ट... राइट... लेफ्ट... राइट...
और आप देखेंगे कि यह सचमुच दिशा बदलने लगी है।
अब अपने माइंड में यह थॉट लाओ —
“यह रिंग गोल-गोल घूम रही है।”
सोचो — राउंड... राउंड... राउंड...
और यह रिंग सचमुच गोल घूमने लगेगी।
अद्भुत है, है ना?
मैं पूरा ध्यान केंद्रित कर रहा था कि हाथ से बिल्कुल भी कोई हलचल न हो —
फिर भी सिर्फ थॉट्स से ही रिंग मूव करने लगी।
यह तो एक छोटा-सा डेमो है,
वास्तव में इससे कहीं बड़ी चीजें आप अपने माइंड, सबकॉन्शियस माइंड और फ्रीक्वेंसी के ज़रिए कर सकते हैं।
यहां तक कि आप अपने हाथ के आकार तक को बदलने का अनुभव भी कर सकते हैं —
सिर्फ अपने विचारों की शक्ति से।
चलो, अब एक छोटा-सा प्रयोग करते हैं।
अपने दोनों हाथों को सामने लाओ और ध्यान से देखो —
ये जो लाइन है, हां, इन्हें बिल्कुल बराबर मिलाना है।
दोनों हथेलियों की इन लाइनों को एकदम इक्वली मिलाओ।
अब अपने हाथों को देखो —
क्या दिख रहा है?
एक हाथ थोड़ा छोटा है और दूसरा थोड़ा बड़ा।
हाँ, सही देखा तुमने —
लेफ्ट वाला हाथ छोटा है।
अब उस लेफ्ट वाले हाथ को सामने लाओ — वही जो छोटा था।
और अब उस हाथ से बात करो — चाहे मन में या ज़ोर से बोलो:
“ए हाथ, तू बड़ा हो जा।
तू बड़ा हो जा।
मैं तुझे आदेश देता हूँ — तू बड़ा हो जा।”
पूरे कन्विक्शन (विश्वास) के साथ यह कहते रहो।
हर शब्द में भरोसा रखो कि यह संभव है।
अब दोबारा से अपने दोनों हाथों को नीचे से मिलाओ…
देखो — क्या हुआ?
हाँ! लेफ्ट वाला हाथ बड़ा हो गया है।
अब जो हाथ छोटा हो गया है, उसे दोबारा सामने लाओ।
और पूरे कन्विक्शन (विश्वास) के साथ उसे कहो —
“ए हाथ, तू बड़ा हो जा।
तू बड़ा हो जा।
मैं तुझे आदेश देता हूँ — तू बड़ा हो जा, बड़ा हो जा, बड़ा हो जा।”
अब अपने दोनों हाथों को फिर से नीचे से मिलाओ…
देखो ध्यान से —
वाकई ये हाथ बड़ा हो गया है!
यह किसी स्ट्रेचिंग या ट्रिक की वजह से नहीं है,
यह सिर्फ माइंड की एनर्जी और सबकॉन्शियस कमांड का प्रभाव है।
⚠️ डिस्क्लेमर:
यह एक्सपेरिमेंट सिर्फ हाथ की लंबाई के साथ किया जाता है।
कृपया अपनी हाइट या शरीर के अन्य हिस्सों पर यह प्रयोग करने की कोशिश ना करें।
कभी कुछ और ट्राई करें जाकर, राइट?
दिस इज़ द पावर ऑफ योर सबकॉन्शियस माइंड।
आप जो भी सोचते हैं, आपके बॉडी सेल्स उसी पर रिएक्ट करते हैं।
क्योंकि ब्रेन के लिए इमेजिनेशन और रियलिटी के बीच कोई फर्क नहीं होता।
जो कुछ भी हुआ, वो सबकॉन्शियसली हुआ — कॉन्शियसली नहीं।
सबकॉन्शियस माइंड में असीम शक्ति होती है।
“You can heal even cancer through the power of the subconscious mind.”
सारी पावर आपके अंदर ही है।
अमेजिंग, है ना?
अब आप देखेंगे कि सबकॉन्शियस माइंड में हम कितनी सारी चीजें एक साथ कवर कर सकते हैं।
जब मैंने आपसे सवाल पूछा था —
लो फ्रीक्वेंसी से कोई इंसान हाई फ्रीक्वेंसी में कैसे जा सकता है?
तो आपने बड़ी ही शानदार तरह से बताया था —
Gratitude (कृतज्ञता) इसका सबसे बड़ा रहस्य है।
आपने समझाया कि ग्रैटिट्यूड को तीन हिस्सों में बाँटना चाहिए —
- Past के लिए अलग
- Present के लिए अलग
- Future के लिए अलग
और जब आप फ्यूचर के लिए भी ग्रैटिट्यूड फील करते हैं,
तो उसके रिजल्ट आपको दिखने लगते हैं।
अब बात आती है एक और बहुत जरूरी चीज़ की —
Affirmations की।
आप देखेंगे कि subconscious mind को reprogram करने के लिए
सोशल मीडिया, किताबों और कोर्सेज में हमेशा एक चीज़ बताई जाती है —
सोने से ठीक पहले या उठने के तुरंत बाद
अपने आप से positive affirmations बोलो या सुनो।
क्योंकि उस समय आपका mind एक विशेष state में होता है —
जहां वह सबसे ज़्यादा receptive (ग्राही) होता है।
जो भी आप उस वक्त बोलते हैं,
वो सीधा आपके subconscious mind में imprint हो जाता है।
इसलिए इस स्टेट का बहुत बड़ा रोल है।
अगर आप इसे सही ढंग से उपयोग करें —
तो हाँ, आप न सिर्फ अपनी लाइफ़ को बदल सकते हैं, बल्कि बेहद अमीर भी बन सकते हैं।
क्या हम बहुत खुश हो सकते हैं?
क्या हम अपने रिश्तों को बेहतर बना सकते हैं?
क्या हम किसी बीमारी — चाहे कैंसर हो या डायबिटीज — को हील कर सकते हैं?
अगर हाँ, तो कैसे?
क्या यह सच में संभव है?
जब हम बात करते हैं Affirmations, Manifestation, या Law of Attraction (आकर्षण के नियम) की,
तो दरअसल एक समस्या यह है कि लोग इसे सिर्फ एक “ट्रेंड” की तरह लेने लगे हैं।
असल में, ये सब —
Affirmation, Manifestation और Law of Attraction —
सिर्फ कोई थ्योरी नहीं हैं,
बल्कि ये वे मोडालिटीज़ (तरीके) हैं
जिनके ज़रिए हम अपने Subconscious Mind से संवाद करते हैं।
“This is the language through which we communicate with our subconscious mind.”
यानी, यही वो भाषा है जिससे आप अपने अंदर की शक्ति से बात करते हैं,
उसे दिशा देते हैं, और अपनी रियलिटी को बदलना शुरू करते हैं।
प्रॉब्लम यह है कि हर इंसान की पर्सनालिटी अलग होती है।
जैसे —
दीपक की पर्सनालिटी अलग है,
मेरी यानी हिमांशु की पर्सनालिटी अलग है,
और हमारी ऑडियंस के हर व्यक्ति की पर्सनालिटी भी अलग है।
किसी व्यक्ति को विज़ुअल चीज़ें बहुत जल्दी समझ में आती हैं।
जिन्होंने यह स्टूडियो सेटअप बनाया है, उन्हें लाइटिंग की समझ है —
“वार्म” क्या होती है, “हॉट” क्या होती है।
मुझसे पूछो तो — मुझे इसका कोई आइडिया नहीं!
कुछ लोगों को आवाज़ की बारीकी समझ आती है।
वे ऑडियो में तुरंत पहचान लेते हैं कि किसकी आवाज़ ऊँची है, किसकी कम।
वे पॉडकास्ट सुनकर कह सकते हैं कि “यहाँ वॉल्यूम थोड़ा ज़्यादा है।”
जबकि हम जैसे लोग कहेंगे — “सब बढ़िया है!”
कुछ लोग बहुत इमोशनल होते हैं।
उन्हें भावनात्मक बातें जल्दी छू जाती हैं।
एक बार किसी ने मुझसे कहा —
“सर, आपकी क्लास में एक व्यक्ति बार-बार सवाल पूछकर आपको परेशान कर रहा था,
फिर भी आपने बहुत शांति से जवाब दिया — मुझे वह बात बहुत अच्छी लगी।”
अब सवाल यह है —
हजार लोगों में से उसी को ही वो बात क्यों अच्छी लगी?
क्योंकि उसकी पर्सनालिटी उस चीज़ से मैच कर गई।
हमारी वाइब्रेशन और उसकी वाइब्रेशन एक जैसी हो गईं।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत लॉजिकल बातें ही समझ में आती हैं।
अगर आप उनसे भावनात्मक या वेग वाली बातें करेंगे, तो वे प्रभावित नहीं होंगे।
लेकिन जैसे ही आप उनसे साइंटिफिक तरीके से, तथ्यों के साथ बात करेंगे —
वो तुरंत इंप्रेस हो जाएंगे।
हर व्यक्ति की एक अलग पर्सनालिटी टाइप होती है।
जब मैं पर्सनालिटी टाइप की बात करता हूँ, तो मेरा मतलब होता है —
हमारा ब्रेन अपने एनवायरमेंट से डेटा कलेक्ट करता है प्रोसेस करने के लिए।
और यह डेटा उसी तरह से लेता है, जिस तरह की आपकी पर्सनालिटी होती है।
यानी आपका सबकॉन्शियस माइंड आपकी पर्सनालिटी के अनुसार रीप्रोग्राम होता है।
अगर आप एक विज़ुअल पर्सन हैं —
तो आपके लिए लॉ ऑफ अट्रैक्शन सबसे ज्यादा काम करेगा।
अगर आप काइनेस्थेटिक पर्सन हैं — यानी जो फीलिंग और इमोशन से जुड़ते हैं,
तो आपके लिए मैनिफेस्टेशन सबसे बेहतर काम करेगा।
और अगर आप एक ऑडिटरी पर्सन हैं — यानी जो आवाज़ और शब्दों से गहराई से जुड़ते हैं,
तो आपके लिए अफर्मेशन सबसे ज्यादा प्रभावी रहेंगे।
कई बार आपने सुना होगा कि लोग कहते हैं — “मैंने तो किया था, पर काम ही नहीं किया।”
आपको लगता है कि मेरे लिए तो सब दवाइयाँ काम करेंगी, पर असल में ऐसा नहीं होता।
कभी कोई पॉडकास्ट सुन लिया, उसमें कहा गया मैनिफेस्टेशन करो — तो आपने वो शुरू कर दिया।
कहीं किसी ने लॉ ऑफ अट्रैक्शन बताया — वो करने लगे।
किसी ने अफर्मेशन बोला — वो करने लगे।
लेकिन दिक्कत तब होती है जब आप गलत चीज़ को प्रैक्टिस कर लेते हैं।
जब वो काम नहीं करती, तो आपका बिलीफ़ उस प्रक्रिया से उठ जाता है।
अगर कोई पहले ही बता दे कि आपकी पर्सनालिटी के हिसाब से कौन-सी तकनीक काम करेगी,
तो आप सिर्फ वही अप्लाई करें — और वही आपके लिए असरदार साबित होगी।
अब समझिए, सोना क्यों जरूरी है —
हमारी बॉडी दिन भर में जो कुछ करती है, सोते वक्त उसकी रिपेयरिंग होती है।
हमारा माइंड दिनभर जो भी हुआ है, उसे दोबारा देखता है —
कौन सी बात रखनी है, कौन सी डिलीट करनी है, कौन सी ज़रूरी है, कौन सी नहीं।
जैसे हमारे कैमरे की मेमोरी 5GB या 10GB तक होती है —
वो कुछ घंटे रिकॉर्ड करते ही भर जाती है।
लेकिन सोचिए, हमारी आंखें कितनी विशाल मात्रा में डेटा रिकॉर्ड करती हैं!
हमारा दिमाग सुबह से रात तक Ultra HD क्वालिटी का डेटा कैप्चर करता रहता है —
क्योंकि हमारी आंखें लगभग 400 मेगापिक्सल की क्षमता रखती हैं।
अब सवाल यह है कि इस सारे डेटा में से क्या रखा जाए और क्या मिटा दिया जाए?
यह फैसला करता है सबकॉन्शियस माइंड —
वो वही बातें, दृश्य और अनुभव रखता है जिनमें ज़्यादा इमोशन और ज़्यादा फ्रीक्वेंसी होती है।
और यह सारा प्रोसेस होता है रात को, जब आप सो रहे होते हैं।
कभी आपने देखा है कि कोई नींद में बड़बड़ाता है?
वो दरअसल दिमाग की प्रोसेसिंग होती है।
दिनभर में जो भी घटनाएँ और भावनाएँ ज्यादा रही हों — वही सपनों में दोबारा आती हैं।
क्योंकि सपने भी इसी प्रोसेसिंग का हिस्सा हैं।
जब आप रात को सोने के लिए जाते हैं,
तो सबसे पहला काम आपका दिमाग करता है — सेंसेस को शट डाउन करना।
क्योंकि अगर इंद्रियां लगातार डेटा कलेक्ट करती रहेंगी,
तो दिमाग कभी “ऑफ” नहीं हो पाएगा।
इस प्रक्रिया में लगभग 10 से 15 मिनट लगते हैं।
इसीलिए जब आप लेटते हैं, तो तुरंत नींद नहीं आती —
करीब 10-15 मिनट बाद ही दिमाग पूरी तरह रिलैक्स होकर नींद की अवस्था में जाता है।
यह पूरी प्रक्रिया दिमाग में लगातार चलती रहती है।
इस अवस्था को कहा जाता है — “स्लीप लेटेंसी टाइम” (Sleep Latency Time)।
जितना आपका स्लीप लेटेंसी टाइम कम होगा,
उतनी ही आपकी नींद की क्वालिटी बेहतर होगी।
कुछ लोगों को नींद आने में बहुत समय लगता है,
वे करवटें बदलते रहते हैं —
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनका स्लीप लेटेंसी टाइम ज्यादा होता है।
अब जब इस प्रक्रिया में आपके सेंसेस धीरे-धीरे शट डाउन होते हैं,
तो आपके थॉट प्रोसेस और ब्रेन के डेटा कलेक्शन सिस्टम की फ्रीक्वेंसी बदल जाती है।
आपका दिमाग उस समय अल्फा (Alpha) और थीटा (Theta) स्टेट में प्रवेश करता है।
इस समय पर आपके ब्रेन की तरंगों की फ्रीक्वेंसी होती है —
लगभग 4 हर्ट्ज से 7 हर्ट्ज (Theta)
या 7 हर्ट्ज से 14 हर्ट्ज (Alpha) के बीच।
जबकि सामान्य जाग्रत अवस्था में विचारों की फ्रीक्वेंसी लगभग 21 हर्ट्ज तक होती है।
यानी इस अवस्था में आपके विचारों की गति धीमी हो जाती है,
और आप अपने सबकॉन्शियस माइंड की स्टेट में पहुँच जाते हैं।
इसीलिए कहा जाता है कि सोने से ठीक पहले या जागने के तुरंत बाद
जो भी विचार या वाक्य (Affirmations) आप बोलते हैं —
वे सीधे सबकॉन्शियस माइंड तक पहुँचते हैं।
लेकिन अगर मुझसे पूछो तो मैं यही सलाह दूँगा कि —
इसे मॉर्निंग में करें, न कि नाइट में।
क्योंकि सुबह जब आप जागते हैं,
तो रातभर आपका दिमाग सारे डेटा को प्रोसेस कर चुका होता है।
आपका माइंड फ्रेश होता है, और एनर्जी भी नई होती है।
इसलिए सुबह किया गया अफर्मेशन
ज्यादा प्रभावी और शक्तिशाली होता है।
रात में करना भी गलत नहीं है —
पर सुबह का समय ज्यादा असरदार होता है।
और अब आप समझ गए होंगे कि लोग क्यों कहते हैं —
“सोने से पहले सकारात्मक बातें सोचो।”
उसके पीछे एक साइंटिफिक कारण है —
क्योंकि उस वक्त आपका सबकॉन्शियस माइंड सबसे ज्यादा रिसेप्टिव होता है।
इसलिए मैं हमेशा यही रिकमेंड करता हूँ कि
अगर आप अफर्मेशन करना चाहते हैं तो उसे सुबह के समय करें।
वही सबसे अच्छा टाइम होता है।
बाकी, आपको जब भी अच्छा लगे तब करें —
लेकिन मेरे अनुभव में मॉर्निंग इज़ द बेस्ट टाइम।
अब बात करते हैं पर्सनालिटी की।
हर इंसान की अपनी अलग पहचान होती है,
उसकी सोचने, महसूस करने और समझने की शैली अलग होती है।
इसलिए जो तरीका एक व्यक्ति पर बहुत अच्छा असर करता है,
ज़रूरी नहीं कि वही दूसरे पर भी उतना ही प्रभावी हो।
उदाहरण के लिए — अगर हम 100 लोगों से “Apple” कहें,
तो लगभग 99 लोगों के दिमाग में सेब की तस्वीर बन ही जाएगी।
यानी जब कोई ऑडियो सुनता है,
तो उसके दिमाग में अपने आप वो विजुअल इमेज उभरती है।
इसलिए कहा जा सकता है कि
ऑडियो अफर्मेशन भी सभी के लिए काम करते हैं —
लेकिन विजुअल अफर्मेशन का असर कुछ लोगों पर और भी गहरा होता है।
जिनकी इमेजिनेशन और विज़ुअलाइज़ेशन पावर ज्यादा मजबूत है,
उन पर विजुअल कंटेंट ज्यादा प्रभाव डालता है।
क्योंकि उनका ब्रेन उसी दिशा में अधिक सक्रिय होता है।
अब ऐसा नहीं है कि अगर आप ऑडियो पर ज्यादा फोकस करते हैं
तो विजुअल आपके लिए काम नहीं करेगा —
हर व्यक्ति में ये अनुपात अलग होता है।
किसी के लिए फीलिंग 100%,
ऑडियो 80%,
और विजुअल 70% असर करता है।
इसलिए जो चीज़ आपके लिए सबसे ज्यादा प्रभावी हो,
उसी माध्यम से अभ्यास करें —
वही आपके लिए सबसे बेहतर रिज़ल्ट देगा।
हर व्यक्ति में एक माध्यम जरूर होता है जो डॉमिनेंट (मुख्य प्रभाव वाला) होता है।
और इसे पहचानने के लिए एक विशेष टेस्ट किया जाता है —
जिसे कहा जाता है VAK Analysis Test,
जो NLP (Neuro Linguistic Programming) का हिस्सा है।
मैं अपने प्रोग्राम में ये टेस्ट कराता हूँ,
उसका लिंक मैं डिस्क्रिप्शन में दे दूँगा।
आप जाकर वहाँ प्रश्नों के उत्तर दें,
तो आपकी एक रिपोर्ट बनेगी जिसमें आपकी पर्सनालिटी टाइप सामने आ जाएगी।
यह टेस्ट बहुत उपयोगी है —
मान लीजिए, आप करियर चुन रहे हैं।
अगर आप “वीडियो एडिटर” बनना चाहते हैं लेकिन आप ऑडियो टाइप पर्सन हैं,
तो शायद आप थंबनेल डिजाइनिंग या विजुअल एडिटिंग में संघर्ष करेंगे।
इसलिए अपनी पर्सनालिटी टाइप को जानना बेहद जरूरी है।
यह एक बहुत ही इंटरेस्टिंग और इनसाइटफुल प्रक्रिया है —
जो आपको खुद को समझने में और बेहतर दिशा चुनने में मदद करती है।
हमारा पूरा पॉडकास्ट “मनी थीम” पर आधारित था, जहाँ से हमने फ्रीक्वेंसी के रूप में शुरुआत की थी।
आपने वहाँ बहुत अच्छे से बताया था कि पैसे की फ्रीक्वेंसी कैसे काम करती है।
लेकिन इसके बावजूद, बाकी चीज़ें भी ज़रूर मायने रखती हैं।
अगर आपने कहा कि 80% चीज़ें एनर्जी या फ्रीक्वेंसी पर निर्भर करती हैं,
तो बाकी 20% का भी बहुत बड़ा रोल होता है।
क्योंकि अगर वो 20% पूरा नहीं हुआ,
तो 80% भी किसी काम का नहीं रहेगा।
अब सवाल ये है कि उस 20% में क्या चीजें आती हैं?
उदाहरण के लिए, अगर पैसों के कुछ रूल्स हैं —
तो देखा गया है कि 80% लोग उन्हें फॉलो नहीं करते,
और सिर्फ 20% लोग करते हैं।
इसीलिए उन्हीं 20% लोगों के पास दुनिया की 80% वेल्थ होती है।
तो सवाल है — वो रूल्स क्या हैं?
पैसे को कमाने, बचाने और इन्वेस्ट करने की साइकोलॉजी क्या है?
वो माइंडसेट क्या होना चाहिए?
बहुत अच्छा सवाल है, दीपक।
पैसे के कुछ नियम (Rules of Money) हैं,
जो अमीर लोग मानते हैं।
अगर हम भी अमीर बनना चाहते हैं,
तो हमें पैसे के उन्हीं नियमों का पालन करना होगा।
💰 पहला नियम: Money loves Attention
पैसा उन्हीं लोगों के पास आता है,
जो उसे Attention देते हैं।
अगर आप कहते हैं —
“पैसा तो हाथ की मैल है, मेरे लिए ये कुछ नहीं”
तो आप खुद ही पैसे को इग्नोर कर रहे हैं।
और याद रखिए —
जिस चीज़ या व्यक्ति को आप इग्नोर करते हैं,
वो आपसे दूर चला जाता है।
पैसा भी वैसा ही है।
अगर आप उसे महत्व नहीं देंगे,
तो वो आपके पास नहीं टिकेगा।
यह यूनिवर्स का एल्गोरिथ्म है —
जिस चीज़ को आप Attention देते हैं,
वही चीज़ आपकी ज़िंदगी में बढ़ती है।
⚡ दूसरा नियम: Money loves Speed
पैसे को स्पीड पसंद है।
स्पीड का मतलब भागदौड़ नहीं,
बल्कि Speed of Execution —
यानी सोचा और तुरंत एक्शन लिया!
किसी अवसर (opportunity) को तुरंत पहचानना और उस पर कार्रवाई करना —
यही अमीर लोगों की सबसे बड़ी आदत है।
जो लोग सफल हैं,
उनका Speed of Execution बहुत तेज़ होता है।
वो सोचते हैं — करते हैं।
फिर अगला विचार — और तुरंत एक और एक्शन।
अगर आप दुनिया के सफल लोगों को देखें —
जैसे Mark Zuckerberg —
अगर उन्होंने सोशल मीडिया का विचार सिर्फ “सोच” तक ही रखा होता,
तो फेसबुक कभी अस्तित्व में नहीं आता।
या Elon Musk, अगर उन्होंने अपने विचारों को
बस सोच तक सीमित रखा होता,
तो आज वो वहाँ नहीं होते जहाँ हैं।
इसलिए, Execution ही असली गेम है।
🧠 तीसरा नियम: Trust Your Subconscious Guidance
कई लोग कहते हैं —
“कभी-कभी विचार एक्साइटमेंट में आ जाते हैं, कहीं गलत न हो जाए?”
लेकिन ऐसा नहीं है।
अगर आप सही फ्रीक्वेंसी पर हैं,
तो जो भी विचार आपके मन में आता है,
वो आपके Subconscious Mind की गाइडेंस होती है।
आपका सबकॉन्शियस माइंड कभी वेगस थॉट नहीं देता,
वो हमेशा किसी उद्देश्य से गाइड करता है।
इसलिए, जब कोई विचार आता है —
तो उसे Execute करें!
उसका सिर्फ दो नतीजा हो सकता है —
या तो वो काम करेगा,
या फिर आप कुछ नया सीखेंगे।
लेकिन अगर आप सोचते रह गए —
तो न तो रिज़ल्ट मिलेगा, न लर्निंग।
सफल लोग हमेशा एक्साइटमेंट में ही सफल बनते हैं —
क्योंकि वे उस पल की एनर्जी पर भरोसा करते हैं।
एग्जीक्यूशन बहुत ज़्यादा लॉजिकल होकर डिसीज़न लेंगे तो आप डिसीज़न ही नहीं ले पाएंगे, क्योंकि आप परफेक्शन को चेज़ करने लग जाएंगे — और परफेक्शन नाम की चीज़ होती ही नहीं है।
हाँ, ये बिल्कुल सही है। आपने यूट्यूब पर एक्साइटमेंट में शुरुआत की थी, लेकिन एक्साइटमेंट में कई सारे थॉट्स आते हैं जो उस समय अच्छे लगते हैं। बाद में जब एक्शन नहीं लेते तो लगता है कि उस समय करना चाहिए था। फिर जब हम नॉर्मल कंडीशन में होते हैं तो सोचते हैं कि डिसीज़न उसी समय लेना चाहिए था — ना ज़्यादा नेगेटिव इमोशन में और ना ही ज़्यादा पॉज़िटिव इमोशन में।
जब आप सही मानसिक स्थिति (राइट मेंटल स्टेट) में होंगे, तब आपको फ़ालतू एक्साइटमेंट नहीं आएगा। सही एक्साइटमेंट वही होगी जो आपकी दिशा को सपोर्ट करेगी।
अगर 10 विचार आते हैं तो 4 पर, या कम से कम 1 पर तो एक्शन ज़रूर लीजिए। हर विचार पर एक्शन लेना ज़रूरी नहीं है, लेकिन किसी एक पर लगातार काम करना ज़रूरी है।
मनी उन्हीं लोगों के पास आती है जिनके पास “स्पीड ऑफ़ एग्जीक्यूशन” होती है।
तीसरी बात — पैसा उन्हीं के पास आता है जो पैसे की इज़्ज़त करते हैं।
पैसे की इज़्ज़त करना, यूनिवर्स को एक सिग्नल देना है कि “मुझे पैसे की वैल्यू पता है।”
अगर आप बार-बार कहते हैं —
“पैसे नहीं हैं।”
“बाद में दे दूँगा।”
“पैसे कहाँ हैं मेरे पास?” —
तो आप यूनिवर्स को ये सिग्नल दे रहे हैं कि आपके पास पैसा नहीं है, और यूनिवर्स उसी हिसाब से आपको रेस्पॉन्ड करेगा।
इसलिए आप कहें —
“अभी मेरे पास चेंज नहीं है, मैं बाद में दूँगा।”
या
“मैं थोड़ी देर में दे दूँगा।”
ऐसे शब्द उपयोग करें जो पॉज़िटिव सिग्नल दें।
अगर आप कहते हैं —
“पैसा लड़ाई लाता है।”
“ज्यादा पैसा बुराई लाता है।”
“पैसा रिश्तों में दरार डाल देता है।”
तो आप अनजाने में यह संदेश भेज रहे हैं कि आपको पैसा नहीं चाहिए।
फिर यूनिवर्स क्यों देगा आपको पैसा?
पैसे को चाहिए — अटेंशन, स्पीड और रिस्पेक्ट।
अगर आप ये तीन चीज़ें नहीं देंगे तो पैसा आपके पास नहीं टिकेगा।
और हाँ, मनी लव्स मिशन।
हर सफल व्यक्ति के पास एक मिशन होता है — एक उद्देश्य, एक पर्पस।
मुकेश अंबानी, रतन टाटा, बिल गेट्स — सभी के पास एक स्पष्ट मिशन है।
इसलिए पैसा उन्हीं के पास आता है जिनके पास मिशन होता है।
अपने जीवन में मिशन और उद्देश्य तय करें — आपको क्या करना है, किस दिशा में आगे बढ़ना है।
जब आपका मिशन क्लियर होगा, पैसा अपने आप आपकी ओर आकर्षित होगा।
मनी उन लोगों के पास आती है जो पैसे को लेकर पॉज़िटिव होते हैं।
पैसा उन लोगों के पास आता है जो पैसे को ब्लेम के साथ नहीं, बल्कि थैंकफुल माइंडसेट के साथ खर्च करते हैं।
कहने का मतलब यह है कि कुछ लोग अपनी लाइफ में कंप्लेनिंग मोड में पैसा खर्च करते हैं।
उदाहरण के लिए —
फैमिली के साथ ट्रिप पर चले गए, लेकिन लौटकर रोने लगते हैं —
“हाय! मेरे एक लाख रुपये खर्च हो गए, इससे तो मैं गाड़ी ले लेता, घर में काम करवा देता।”
शॉपिंग पर गए, पत्नी ने कुछ खरीद लिया — अब उसे ताने दे रहे हैं —
“इतने पैसे उड़ा दिए, तुम हमेशा खर्च करती रहती हो।”
बच्चों ने कुछ खरीदा, और फिर आप घर आकर अफ़सोस करने लगते हैं कि पैसा खर्च हो गया।
ऐसे बहुत सारे लोग हैं —
जब वे पैसा खर्च करते हैं, तो कंप्लेनिंग मोड में करते हैं।
लगभग 90% लोग पैसा खर्च करते समय पेन महसूस करते हैं।
उन्हें लगता है जैसे दिल से कुछ निकल गया हो —
“हाय मेरा पैसा खर्च हो गया!”
“हाय, मुझे गिफ्ट देना पड़ा!”
“हाय, ये खर्च करवाना पड़ा!”
याद रखिए:
जब खर्च हो ही गया है, तो उसके लिए शुक्रिया कहिए।
कहिए —
“Thank you God for making me capable so that I can pay for this.”
“धन्यवाद भगवान, आपने मुझे इतना सक्षम बनाया कि मैं यह खर्च कर पा रहा हूँ।”
क्योंकि अगर आप रोएंगे या कंप्लेन करेंगे, तो आपको और कमी ही मिलेगी।
लेकिन अगर आप ग्रेटिट्यूड (कृतज्ञता) के साथ खर्च करेंगे, तो यूनिवर्स आपको और अवसर देगा पैसे कमाने के।
इसलिए:
-
कंप्लेन करना बंद कीजिए।
-
रोना बंद कीजिए।
-
पैसे को रिस्पेक्ट देना शुरू कीजिए।
-
थैंकफुल माइंडसेट के साथ मनी को स्पेंड कीजिए।
-
अपनी लाइफ में स्पीड ऑफ एक्शन और मिशन लेकर आइए।
जब आप पैसे के प्रति सही एनर्जी के साथ व्यवहार करेंगे,
तो मिरेकल्स (चमत्कार) होने लगेंगे।
आपको खुद-ब-खुद नई स्ट्रेटेजीज़ और अवसर मिलने लगेंगे।
कमी किसी स्ट्रेटेजी की नहीं है — कमी है पैसे को लेकर सही प्रिंसिपल्स और एनर्जी की।
तो याद रखिए —
Money comes to those who pay attention, give respect, value speed, and live with a mission.
इसलिए इन प्रिंसिपल्स को फॉलो कीजिए और देखिए कैसे आपकी जिंदगी में बदलाव आता है।
जय हिंद, जय भारत। खूब पैसा कमाइए, खूब नाम कमाइए, और खुश रहिए।

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