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क्या हाई कोर्ट के आदेश का गलत इस्तेमाल किया गया? शिवनंदन नगर का जमीनी सच

 

Shivnandan Nagar Sonsa Rahui
शिवनंदन नगर में अतिक्रमण हटाओ अभियान—सच क्या है और किससे छुपाया जा रहा है?

High Court का जज भगवान नहीं होता — और गलत फैसला भी हो सकता है।

कानून में यह बात खुद लिखी हुई है:

✔ जज इंसान हैं → गलती कर सकते हैं

✔ उनके सामने जो रिपोर्ट, सबूत और दस्तावेज़ पहुँचते हैं, उसी के आधार पर फैसला होता है

✔ अगर अफसर कोर्ट को गलत/अधूरी जानकारी भेजे → कोर्ट का आदेश भी गलत हो सकता है

✔ इसलिए कानून में “Review”, “Appeal”, और “Stay” जैसी प्रक्रिया बनाई गई है

अगर जज कभी भी 100% सही होते, तो “Supreme Court” की जरूरत ही नहीं पड़ती।

1. कोर्ट का गलत फैसला कैसे होता है?

गलत तब होता है जब:

1️⃣ अफसर कोर्ट को आधा-सच भेजे

जैसे:

  • सिर्फ दलितों का डेटा भेज दिया
  • गैर-दलित अतिक्रमण छिपा लिया
  • यह नहीं बताया कि लोग 80-100 साल से रह रहे हैं
  • यह नहीं बताया कि बिजली, पानी, राशन कार्ड, वोटर ID है

2️⃣ कोर्ट को लगता है कि सभी अवैध कब्जे हैं

क्योंकि अफसर ने यही लिखा होता है।

3️⃣ कोर्ट “Equally लागू होने वाला आदेश” देता है

लेकिन ग्राउंड पर अफसर जाति देखकर कार्रवाई करते हैं, तो
→ कोर्ट का आदेश “Discriminatory” बन जाता है।

इसी लिए कानून में कहा गया है:

“अगर प्रशासन कोर्ट के आदेश को गलत तरीके से लागू करे, तो पूरी जिम्मेदारी अफसर की होती है — जज की नहीं।”

2. High Court के फैसले को चुनौती देने का तरीका मौजूद है

अगर फैसला गलत लगता है तो कानून ये 3 रास्ते देता है:

✔ (A) Review Petition

High Court से ही कहा जाता है:
“आपका आदेश गलत जानकारी पर आधारित है। इसे दुबारा देखें।”

✔ (B) Division Bench Appeal

2 जजों के सामने यह बताया जाता है कि:

  • प्रशासन ने आधे सच पर केस बनाया
  • सिर्फ दलितों पर कार्रवाई हुई
  • गैर-दलित को नहीं छुआ गया
  • कोर्ट को Mislead किया गया

✔ (C) Supreme Court Appeal

अगर मामला बहुत गंभीर और भेदभाव से जुड़ा हो।

3. कोर्ट खुद भी कहता है कि गलतियाँ हो सकती हैं

भारत की न्याय व्यवस्था में यह मान्यता है:

“Judges are not infallible.”
(जज गलती कर सकते हैं)

इसी वजह से:

  • Lower Court → High Court
  • High Court → Supreme Court

पूरा सिस्टम ही बनाया गया है ताकि गलत आदेश सुधारा जा सके

4. आपका केस क्यों गलत हो सकता है?

आपने बताया:

  • गैर-दलित का घर नहीं तोड़ा गया
  • सिर्फ शिवनंदन नगर के दलित परिवारों पर कार्रवाई
  • प्रशासन कह रहा "High Court का आदेश है"

अगर High Court ने ऐसा “Targeted Order” दिया है—
तो यह असंभव है, क्योंकि कोर्ट जाति नहीं देखता।

इसका मतलब साफ़ है:

👉 कोर्ट को गलत रिपोर्ट दी गई है

👉 कोर्ट को अधूरी जानकारी दी गई है

👉 असली गलती प्रशासन की है, जज की नहीं

👉 कार्रवाई भेदभावपूर्ण है

और यह SC/ST Act के तहत अपराध बनता है।

 सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर SC/ST परिवारों के घरों को “अतिक्रमण-मुक्त” घोषित करने का आदेश क्यों दिया गया? यह सर्वविदित है कि इन दलित परिवारों का निवास लगभग 80–100 वर्ष पुराना है और यह कब्ज़ा उन भूमिहीन परिवारों द्वारा किया गया था जिन्हें उस समय रहने के लिए किसी प्रकार की वैकल्पिक भूमि उपलब्ध नहीं कराई गई थी। ऐसे सामाजिक-न्याय आधारित दीर्घकालिक कब्ज़े को एक झटके में “अवैध” घोषित कर देना उचित नहीं था।

लेकिन किसी एक व्यक्ति द्वारा हाईकोर्ट में याचिका दायर किए जाने पर अदालत ने उसके पक्ष में निर्णय दे दिया। यहाँ न्यायालय की कोई गलती नहीं है, क्योंकि हाईकोर्ट केवल जिलास्तरीय प्रशासन द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट, अभिलेख और तथ्यों पर आधारित निर्णय देता है। यह स्वाभाविक है कि निर्णय सुनाने से पहले कोर्ट ने जांच रिपोर्ट मंगाई होगी। अब सवाल उठता है कि जब जमीनी वास्तविकता कुछ और थी, तो अधिकारियों ने अदालत को गलत, अधूरी या भ्रामक रिपोर्ट क्यों प्रस्तुत की?

यदि किसी अधिकारी ने तथ्य छुपाते हुए या पक्षपाती तरीके से गलत रिपोर्ट भेजी, तो यह अत्यंत गंभीर प्रशासनिक कदाचार है। ऐसी गलत रिपोर्ट ही गलत निर्णय का आधार बनी, जिसके कारण दर्जनों दलित परिवारों के घर ढहा दिए गए और वे बेघर हो गए। इसलिए यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वास्तविक अन्याय अदालत के नहीं, बल्कि उन अधिकारियों के गलत आचरण का परिणाम है जिन्होंने सत्य को दबाकर न्याय की प्रक्रिया को भटकाया।

अतः मांग की जानी चाहिए कि उन सभी अधिकारियों की पहचान कर उनके विरुद्ध कठोर विभागीय एवं कानूनी कार्रवाई की जाए, जिन्होंने “हाईकोर्ट के आदेश” का बहाना बनाकर लोगों को उजाड़ा। प्रशासन का दायित्व जनता की सुरक्षा और संरक्षण है, न कि उन्हें जीवनभर की कमाई से बेघर कर देना। ऐसे अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित होना ही सच्चे न्याय की पहली शर्त है।

1. High Court ने SC/ST के घर तोड़ने का आदेश सीधे नहीं दिया

High Court कभी भी सीधे जाकर किसी गरीब का घर नहीं तोड़ता।
कोर्ट केवल यह देखता है:

  • जमीन सरकारी है या निजी
  • रिकॉर्ड में किसका नाम है
  • किसका कब्जा वैध है
  • अधिकारी ने जो रिपोर्ट दी है, क्या वह सही है

⚠️ High Court उसी के आधार पर फैसला देता है… जो अधिकारी लिखकर भेजते हैं।

अगर अधिकारी ने रिपोर्ट में लिखा कि
“जमीन सरकारी है और लोग अतिक्रमण में हैं”
तो High Court उसी को आधार मान लेता है

2. गलती प्रायः अधिकारियों की होती है, कोर्ट की नहीं

अधिकारी अगर गलत, अधूरी या झूठी रिपोर्ट भेजे

→ High Court का निर्णय गलत दिशा में जा सकता है।
→ यह दोष न्यायालय का नहीं बल्कि Executive (ब्यूरोक्रेसी) का होता है।

ऐसी घटनाएँ भारत में बहुत बार हुई हैं।

3. 100 साल से रहने वाले SC/ST को “अवैध अतिक्रमण” कहना गलत है?

बिल्कुल नैतिक रूप से गलत है।
परंतु कानूनी रूप से कुछ बातें लागू होती हैं:

✔ जमीन किसके नाम पर दर्ज थी?

अगर रिकॉर्ड में जमीन अभी भी “सरकारी भूमि” दिख रही हो, और कोई पट्टा/नियोजन न दिया गया हो,
तो High Court कानून के अनुसार उसको अवैध कब्जा मानता है—even if लोग 100–150 साल से रहे हों।

✔ जमीन का हक़ “कब्जे से” नहीं, कानून से मिलता है

यही कारण है कि दलित–ग़रीब लोग पीढ़ियों से रहने के बावजूद भी “अतिक्रमण” कहलाते हैं।

यह बहुत बड़ी सिस्टम की कमजोरी है, पर सच्चाई यही है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 80–100 वर्षों से जिस भूमि पर दलित परिवार पीढ़ियों से बसे हुए हैं, उस भूमि का पट्टा या नियोजन देना स्वयं प्रशासन की जिम्मेदारी थी। भूमि-नियमन के नियम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि लंबे समय से निवास कर रहे भूमिहीन परिवारों को प्राथमिकता के आधार पर पट्टा दिया जाना चाहिए। लेकिन विभाग ने यह जिम्मेदारी कभी निभाई ही नहीं।

अब अधिकारी यह कहकर बचने की कोशिश कर रहे हैं कि “लोगों ने आवेदन नहीं दिया”, जबकि यह तर्क न केवल कमजोर है बल्कि गरीब परिवारों के जीवन की वास्तविकता को बिल्कुल नहीं समझता। जो परिवार पढ़ना-लिखना तक नहीं जानते, जिन्हें सरकारी प्रक्रिया, नोटिस, आवेदन-फॉर्म या कानूनी औपचारिकताओं का कोई ज्ञान नहीं — वे आवेदन कैसे देंगे?

सरकार और प्रशासन का काम यह नहीं है कि गरीबों की अनभिज्ञता को बहाना बनाकर उन्हें ही दोषी ठहरा दिया जाए। बल्कि प्रशासन का दायित्व है कि वह ऐसे कमजोर वर्गों तक स्वयं पहुँचे, उनकी दशकों पुरानी रहने की स्थिति को नियमित करे और उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करे।

दुखद एवं विडंबनापूर्ण यह है कि जिस पट्टा को देने की जिम्मेदारी प्रशासन पर थी, वही जिम्मेदारी पूरी न करने का दंड आज उन्हीं दलित परिवारों को दिया जा रहा है। जिन लोगों को पट्टा मिलना चाहिए था, उन्हें “अतिक्रमणकारी” घोषित कर बेघर किया जा रहा है — यह सीधा-सीधा प्रशासनिक उपेक्षा का परिणाम है।

इसलिए यह सवाल उठाना बिल्कुल उचित है कि जब स्वयं अधिकारियों ने अपनी मूल जिम्मेदारी — यानी नियोजन/पट्टा प्रदान करना — ही नहीं निभाई, तो उसका खामियाज़ा गरीब दलित परिवार क्यों भुगतें? इस अन्याय के लिए जवाबदेही अधिकारियों की ही बनती है।

4. High Court ने पहले जाँच का आदेश दिया होगा

हाँ, हमेशा ऐसा ही होता है।

High Court पहले यह कहता है:

“DM/CO/SO स्थल निरीक्षण कर रिपोर्ट दाखिल करें।”

समस्या यहीं आती है:

  • अधिकारी अपनी सुविधा से रिपोर्ट बना देते हैं
  • स्थानीय राजनीति और दबाव शामिल हो जाता है
  • SC/ST को बचाने वाले कानूनों का सही उल्लेख नहीं करते
  • जमीन के इतिहास को नहीं जोड़ते
  • 100 साल के कब्ज़े की सामाजिक हकीकत को नहीं लिखते

और अंत में रिपोर्ट कहती है:
“अतिक्रमण है → हटाइए”

Court उसी रिपोर्ट के आधार पर आदेश दे देता है।

6. लेकिन व्यवहार में कार्रवाई क्यों नहीं होती?

क्योंकि:

  • सिस्टम अधिकारी को बचाता है
  • SC/ST के घर तोड़ने को “routine encroachment removal” दिखा देते हैं
  • गरीब लोग आगे अपील नहीं कर पाते
  • गलत रिपोर्ट साबित करने के लिए अगला केस डालना पड़ता है

7. अब वास्तविक और मजबूत समाधान क्या है?

मैं आपको सीधे उपाय बताता हूँ:

✔ (1) High Court में Revision / Review / LPA Appeal

अगर आदेश गलत रिपोर्ट पर आधारित था, तो
“गलत जांच रिपोर्ट के कारण गलत आदेश हुआ”
यह आधार सबसे मजबूत है।

✔ (2) रिपोर्ट बनाने वाले अधिकारी के खिलाफ SC/ST Atrocity Complaint

सीधे DM/SP को:

“गलत रिपोर्ट के कारण SC/ST के घर तोड़े गए — यह Atrocity का मामला है।”

✔ (3) NHRC / NCSC में नया complaint

“गलत प्रशासनिक रिपोर्ट → मानवाधिकार हनन”

मैं इस ब्लॉग के माध्यम से बिहार प्रशासन और माननीय न्यायालयों से एक विनम्र लेकिन दृढ़ मांग करता हूँ कि जिन दलित परिवारों के घर तोड़े गए हैं, उन्हें उचित मुआवज़ा प्रदान किया जाए। किसी भी नागरिक को बिना वैकल्पिक व्यवस्था के बेघर करना संविधान के मूल अधिकारों के विपरीत है। इसलिए प्रभावित सभी परिवारों को तत्क्षण राहत, पुनर्वास और आर्थिक सहायता दी जानी आवश्यक है।

साथ ही, जिन बस्तियों में ये परिवार 80–100 वर्षों से रहते आए हैं, उन बस्तियों को वहीं कायम रहने दिया जाए। यह भूमि इनके जीवन का आधार, उनकी पहचान और उनकी पीढ़ियों का अस्तित्व है। अतः इस लंबे समय से बसे समुदाय को विस्थापित करने के बजाय, उसी स्थान पर बसाने की अनुमति दी जाए और पूरी बस्ती को कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए।

इसके साथ ही मैं यह भी आग्रह करता हूँ कि इस भूमि का विधिवत सर्वे कराकर उन वास्तविक निवासियों के नाम से भूमि का बंदोबस्त (पट्टा) किया जाए, ताकि भविष्य में कोई भी अधिकारी, संस्था या व्यक्ति इन गरीब परिवारों को फिर से असुरक्षित स्थिति में धकेल न सके।

न्यायालय और प्रशासन दोनों का उद्देश्य जनता के अधिकारों की रक्षा करना है। इसलिए उम्मीद की जाती है कि इस मामले में भी संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए पीड़ित परिवारों के पक्ष में उचित निर्णय लिया जाएगा।

मैं सभी पाठकों, सामाजिक संगठनों, छात्र-युवा साथियों और न्यायप्रिय नागरिकों से विनम्र आग्रह करता हूँ कि इस पोस्ट को अधिक से अधिक साझा करें, ताकि हमारी आवाज़ हर जगह पहुँचे। जितनी दूर तक यह बात फैलेगी, उतनी ही जल्दी पीड़ित परिवारों को न्याय मिलने की संभावना बढ़ेगी। आपकी एक शेयर किसी परिवार की उम्मीद बन सकती है। आइए—एक समुदाय के रूप में खड़े होकर उन दलित परिवारों का साथ दें, जिनके घर उजाड़ दिए गए हैं, और मिलकर न्याय की मांग को मजबूत बनाएं।

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